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________________ १२२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान-निविकल्प समाधि में स्थित मुनियों के लिये तो पाप के समान पुण्य को हेय मानना उचित है, किन्तु श्रेणी प्रारोहण से पूर्व अवस्था वालों के लिए पुण्य हेय नहीं है। कहा भी है-"तहि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा तिष्ठन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति ? भगवानाह-यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं त्रिगुप्तिगुप्तवीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा संमतमेव । यदि पुनस्तथाविधामवस्थामलभमाना अपि संतो ग्रहस्थावस्थायां दान-पूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च त्यक्त्वोभय-भ्रष्टा: सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम् । अर्थ-यहाँ पर शंका की गई कि यदि पुण्य पाप समान हैं, तो जो पुण्य पाप को समान मान कर बैठे हैं, उनको दूषण क्यों दिया जाता है ? आचार्य कहते हैं-शुद्धात्म-अनुभूति-स्वरूप तीन गुप्ति से गुप्त वीतराग निर्विकल्प परम समाधि को पाकर ध्यान में मग्न हुए यदि पुण्य पाप को समान जानते हैं, तो उनका जानना योग्य है। परन्तु जो परम समाधि को न पाकर भी गृहस्थ अवस्था में दान-पूजा आदि को छोड़ देते हैं और मुनि पद में छह आवश्यक कर्मों को छोड़ देते हैं वे उभय भ्रष्ट हैं। उनके पुण्य पाप को समान जान कर पुण्य को हेय मानना दोष ही है। वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं । छायातववटियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ॥ २५ ॥ श्री कुन्दकुन्द कृत मोक्षपाहुड अर्थ-व्रत और तप करि स्वर्ग होय है सो श्रेष्ठ है, बहुरि इतर जो अव्रत और अतप तिनिकरि प्राणी के नरकगति विर्षे दुःख होय है सो मति होहु श्रेष्ठ नाहीं ( हेय है )। छाया और आतप के विर्षे तिष्ठने वाले के जे प्रतिपालक का कारण हैं तिनके बड़ा भेद है ( बहुत अंतर है )। यहाँ कहने का यह प्राशय है जो जेते निर्वाण न होय तेतै व्रत तप आदिक ( शुभ कार्यों ) में प्रवर्तना श्रेष्ठ है यात सांसारिक सुख की प्राप्ति हो है और निर्वाण के साधन विष भी ये सहकारी हैं। विषय कषायादिक ( अशुभ कार्यों ) की प्रवृत्ति का फल तो केवल नरकादिक के दुःख हैं सो तिन दुःखनि के कारणनिकू सेवना यह तो बड़ी भूल है, ऐसा जानना । अष्टपाहुड़ पृ० २९३ । श्री पूज्यपाद आचार्य ने इष्टोपदेश में भी कहा है-- वरं व्रतं पदं देवं नाव्रतैर्बत नारकं । छायातपस्थयोर्भेदः, प्रतिपालयतोर्महान् ॥ ३ ॥ अर्थ-व्रतों के द्वारा ( शुभ भावों के द्वारा ) देव पद ( पुण्य ) प्राप्त करना अच्छा है ( उपादेय है ) किन्तु अवतों ( अशुभ ) के द्वारा नरक पद ( पाप ) प्राप्त करना अच्छा नहीं ( हेय है ) । जैसे छाया और धूप में बैठने वाले में महान् अन्तर पाया जाता है, वैसे ही व्रत ( पुण्य ) और अव्रत ( पाप ) के आचरण व पालन करने वालों में अन्तर पाया जाता है। श्री अकलंक देव ने अष्टशती में तथा श्री विद्यानन्द आचार्य ने अष्टसहस्री में कारिका ८८ की टीका में परम पुण्य से मोक्ष लिखा है-“मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मकपौरुषाभ्यामेव संभवात् ।" अर्थ-मोक्ष भी होय है सो परम पुण्य का उदय अर चारित्र का विशेष आचरण रूप पौरुषत होय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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