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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] संज्ञी जीवों का प्रलाप कहने पर एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान होता है । इस प्रकार असंज्ञी जीवों के सासादन गुणस्थान के विषय में दो मत हैं । जिनके मत अनुसार असंज्ञी जीवों के सासादन गुणस्थान होता है वह निर्वृतिअपर्याप्त अवस्था में ही होता है पूर्ण अर्थात् पर्याप्त अवस्था में नहीं होता है । लब्धि - अपर्याप्तक के सासादन नहीं होता है, पर्याप्तक के ही होता है । - जै. ग. 24-4-69 / V / ट. ला. जैन मेरठ [ १११ शंका- पृथ्वी काय, जलकाय, वनस्पति काय के जीवों के अपर्याप्त अवस्था में क्या सासादन गुणस्थान संभव है ? सहजानन्द चौंतीसठाणों में सासादन गुणस्थान बतलाया है । समाधान -- एकेन्द्रिय जीवों में मात्र एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । "एइंदिया वीइंडिया तोइंदिया चउरिदिया असष्णिपंचिदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइट्टि द्वारो ॥३६॥” "पुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणप्फकाइया, एक्कम्मि चेय मिच्छाइट्टिट्ठा |४३|” षट् खंडागम संत परूवणाणुयोगद्वार । अर्थ - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं ।। ३६ ॥ अर्थ -- पृथिवी कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान में ही होते हैं ||४३|| छिष्णा "जदि एइंदिएसु सासणसम्माइट्ठी उप्पज्जदि तो पुढवीकायादिसु दो गुणट्टाणाणि होंति ति चे ण, अपढमसमए सासणगुणविणासादो ।" धवल पु० ६ पृ० ४५९ । यदि एकेन्द्रियों में सासादन सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, तो पृथिवीकायादिक जीवों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होना चाहिये ? यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि आयु क्षीण होने के प्रथम समय में ही सासादन गुणस्थान का विनाश हो जाता है । "एइदिएसु सासणगुणहाणं पि सुनिज्ञ्जदि तं कथं घडदे ? ण एदम्हि सुत्ते तस्स णिसिद्धत्तादो । विरुद्धत्थाणं कध दोहं पि सुत्तत्तणमिदि ? णु दोण्हं एकदरस्ससुत्तत्तादो। दोन्हं मज्झे इवं सुत्तमिदं च ण भवदीदि कधं णव्वदि ? उवदेसमंतरेण तदवरामाभाव दोन्हं पि संगहो कायव्वो । दोहं संगहं करतो संसय मिच्छाइट्ठी होदि त्ति ? तण्ण, सुत्त छिट्ठमेव अस्थि त्ति सुद्दहंतस्स संदेहाभावादो । उक्त च Jain Education International सुत्तादो तं सम्मं दरिसिज्जतं जदा ण सदहदि । सो चेय हवदि मिच्छाइट्ठी हु तदो पहुडि जीवो ॥ धवल पु० १ पृ० २६१-६२ । अर्थ इस प्रकार है - एकेन्द्रिय जीवों में सासादन गुणस्थान भी सुनने में आता है, इसलिये सूत्र ३६ में उनके केवल एक मिध्यादृष्टि गुणस्थान कथन करने से वह कैसे बन सकेगा ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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