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________________ ८६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इनके अतिरिक्त केवली के परमौदारिक शरीर में निगोदिया जीव नहीं रहते हैं, किन्तु केवलज्ञान से पूर्व अवस्था में तीर्थंकरों में निगोदिया रहते हैं पुढवीआदिचउण्हं, केवलिआहारदेवणिरयंगा। अपदिदिदा णिगोदेहि, पदिटिदंगा हवे सेसा ॥२००॥ गो० जी० पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक और अग्निकायिक जीवों के शरीर में तथा केवलियों के शरीर में, आहारक शरीर में एवं देव-नारकियों के शरीर में बादर निगोद जीव नहीं रहते हैं । शेष मनुष्य और तियंचों के शरीर में बादर निगोद जीव रहते हैं। किमटुमेदे एत्थ मरंति ? ज्झारणेण णिगोदजीवुप्पत्तिद्विदिकारणणिरोहादो। ज्माण अणंताणतजीवरासिणिहताणं कथं णिवुई ? अप्पमादादो। को अप्पमादो ? पंचमहब्धयाणि पंच समदीयो तिणि गुत्तीओ। णिस्सेसकसायाभावो च अप्पमादो णाम । ........ ........... प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः । धवला टीका पु० १४, पृ० ८९-९०। ध्यान से जीवों की उत्पत्ति और स्थिति के कारणों का निरोध हो जाने से क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में जीव मरण को प्राप्त होते हैं। ध्यान के द्वारा अनन्तानन्त जीवराशि का हनन करने वाले क्षीणकषाय जीव को अप्रमाद के कारण निवृत्ति ( मोक्ष ) हो जाती है। पाँच महाव्रत, पाँच समिति और समस्त कषायों के अभाव को अप्रमाद कहते हैं। जो प्रमाद रहित है वह अहिंसक है, किन्तु जो प्रमादयुक्त है वह सदैव हिंसक है। छमस्थ अवस्था में भी अन्य मनुष्यों के शरीर की अपेक्षा तीर्थंकरों के शरीर में कुछ विशेषता रहती है। अतः छद्मस्थ अवस्था में भी तीर्थंकर के शरीर को परमौदारिक ( उत्तम औदारिक) कह दिया है। किन्तु जब क्षुधा आदि बाधाएँ दूर हो जाती हैं, नेत्र टिमकार रहित हो जाते हैं, रुभिर एवं मांस श्वेत हो जाता है, शरीर की छाया नहीं पड़ती तथा शरीर में निगोद जीव नहीं रहते तभी वह परमौदारिक होता है। -जं. ग. 20-11-75/V-VII/........ तीर्थंकरों के जन्म से पूर्व रत्नवृष्टि का कारण एवं उस धन-वर्षा से प्राप्त रत्नों का स्वामी कौन ? शंका-तीर्थकर के गर्भ में आने से ६ महीने पूर्व से ही उनके माता-पिता के गृहांगन में जो रत्नों की वर्षा होती है वह तीर्थकर के पुण्य से होती है या उनके माता-पिताओं के पुण्य से ? रत्न मिलते हैं या नहीं ? यदि मिलते हैं तो किनको मिलते हैं ? समाधान-तीर्थकर के गर्भ में आने से ६ महीने पूर्व जो रत्नों की वर्षा होती है, वह गर्भकल्याणक का ही एक अङ्ग है। गर्भकल्याणक तीर्थंकर के पुण्य के उदय से होता है। कहा भी है- 'महाभाग के स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतार लेने के ६ माह पूर्व से ही प्रतिदिन तीर्थंकर के पुण्य से कुबेर ने साढ़े तीन करोड़ रत्नों की दृष्टि की।' ४८, श्लोक १८-२० । रत्न मिलते थे । कहा भी है-'यह धन-वर्षा प्रतिदिन साढ़े तीन करोड प्रमाण होती थी और छोटे-बड़े किसी भी याचक के लिये उसे लेने की रोक-टोक न की जाती थी। सब लोग खशी से उठा ले जाते थे।' हरिवंशपुराण पर्व ३७, श्लोक १-३। अथवा इन्द्र आदि अपनी भक्ति से गर्भ आदि कल्याणक मनाते हैं, जिस प्रकार जिनप्रतिमा की भक्ति करते हैं। इसमें तीर्थंकर या प्रतिमा का कर्मोदय कारण नहीं है। -जें. सं. 19-3-59/V/.. ला. जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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