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________________ ७४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : १३. श्री हजारीलालजी जैन, बी. कॉम., एल-एल. बी., नाई की मण्डी, आगरा लिखते हैं : "हमारे सौभाग्य से श्री ७० रतनचन्दजी मुख्तार अागरा नाई की मण्डी में पधारे। आपसे अनेक विषयों पर तत्त्वचर्चा हुई, जिससे परम सन्तोष हुआ। उसमें मुख्य विषय नियतिवाद या क्रमबद्ध पर्याय का था जिसके बारे में यहाँ के लोगों की धारणा कुछ गलत बनी हुई थी। पं० जी साहब से चर्चा होने पर इस बारे में पूर्ण समाधान हुआ। कुछ पर्याय नियत भी हैं और कुछ पर्यायें अनियत भी हैं। जैसा कि अकलंक देव ने 'राजवातिक' में लिखा है कि मोक्ष जाने का काल नियत नहीं है। इसके सिवाय अन्य विषयों पर भी शंका-समाधान हए जिनसे पर्याप्त सन्तोष मिला।" [२१-५-६५] पं० माणिकचन्दजी न्यायाचार्य, फिरोजाबाद से लिखते हैं : "श्रीमान् धर्मप्राण, सज्जनवर्य ब्र० रतनचन्दजी मुख्तार ! योग्य माणिकचन्द्र कृत सादर वन्दना स्वीकृत हो। आपके लेख प्रौढ़ विद्वत्तापूर्ण आगमभृत् होते हैं। मैं उनको दो तीन बार पढ़ता हूँ। आपका नियतिवाद टैक्ट बडा ठोस व मर्मस्पर्शी है । आपकी लेखनी में न्याय व सिद्धान्त भरा हुआ है।" [२-५-६६] १५. श्री कामताप्रसादजी शास्त्री, काव्यतीर्थ, विद्यारत्न, सिरसागंज (मैनपुरी) से लिखते हैं : "श्री विद्वद्रत्न पूज्य ब्रह्मचारीजी ! सविनय वन्दना । 'नियतिवाद' पुस्तक को आद्योपान्त पढ़ा। केवलज्ञान को भानुमती का पिटारा समझने वालों के लिये जयधवला का प्रमाण बहुत ही हृदयग्राही एवं पृष्ट प्रमाण है, मुझे तो एक नई सूझ ही मालूम पड़ी। अस्तु, धन्यवाद ।" [४-५-६६] १६. पं० जम्बूप्रसाद जैन शास्त्री, मंडावरा (झाँसी) उ० प्र० लिखते हैं : "श्रीमान् सिद्धान्तवारिधि, सिद्धान्तभूषण, विद्वद्रत्न, पूज्य श्रद्धय ब्र० मुख्तारजी सा० ! योग्य सविनय वन्दना स्वीकृत हो। आज श्रीमान् की सेवा में कृतज्ञतापूर्ण भावों से पत्र प्रेषित करते हए हृदय हर्षित हो रहा है। आपके द्वारा लिखित शंका-समाधान के अनेक लेख जैनपत्रों में पढ़कर चित्त आनन्दित हो जाता है। लगता है कि आपकी जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती ही निवास करती है। जनता को आपने आगमोक्त मार्ग का जो प्रदर्शन किया है, उसका सारा जैनसमाज चिरकाल तक ऋणी रहेगा। मैं पुनः आपके इस ज्ञान की महिमा की प्रशंसा करता हूँ और मैं आपसे ऐसा शुभाशीष चाहता हूँ कि मुझे भी इस जैन सिद्धान्त के रहस्य को समझने की क्षमता प्राप्त हो तथा जिन भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि आप चिरायु होकर जैन सिद्धान्त का प्रसार कर जन-जन का सन्देह निवारण करते हुए अज्ञानान्धकार को दूर करते रहें।" . १७. कोठारी शान्तिलाल नानालाल कुशलगढ़ (जि० बाँसवाड़ा) लिखते हैं : "श्रीमान् श्रद्धय पंडितप्रवर ब्र० रतनचन्दजी मुख्तार सा० ! सादर अभिवादन ! आपका कृपापत्र ता० १८-७-१९६९ का एवं शंका-समाधान का बुक-पोस्ट भी आज प्राप्त हुआ, पढ़कर बड़ी प्रसन्नता हुई। आप जैसे विद्वान् प्रवर शतायू हों, ऐसी ही जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना है। परवादियों के मत-खण्डन में आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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