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________________ ७२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : ४. श्री एल० सी० जैन, एम. एस. सी. लेक्चरार, महाकौशल, महाविद्यालय जबलपुर लिखते हैं "आपने तिलोयपण्णत्ती के यवाकार आदि क्षेत्रों की आकृतियाँ सुधारे हुए रूप में प्रस्तावित की थीं जो तिलोयपण्णत्ती के गणित में छपी हैं। अपनी प्रारम्भिक प्रस्तावना में आपको धन्यवाद न दे सका। यह जो गलती हई इसके लिये आप मुझको क्षमा अवश्य ही करेंगे। आपकी गहन अनुभवों रूप फौलाद की नीवों पर ही तो हम बच्चों ने कुछ काम किया है और करेंगे।" [७-६-५६] ५. पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य ( सागर ) श्री त्रिलोकसार ( शान्तिवीरनगर, श्री महावीरजी ) की प्रस्तावना में लिखते हैं - “सिद्धान्तभूषण श्री रतनचन्दजी मुख्तार, सहारनपुर ने इस ग्रन्थ के सम्पादन में भारी श्रम किया है। श्री रतनचन्दजी मुख्तार पूर्व भव के संस्कारी जीव हैं। इस भव का अध्ययन नगण्य होने पर भी इन्होंने अपने अध्यवसाय से जिनागम में अच्छा प्रवेश किया है और प्रवेश ही नहीं, ग्रन्थ तथा टीकागत अशुद्धियों को पकड़ने की इनकी अद्भुत क्षमता है । इनका यह संस्कार पूर्वभवागत है, ऐसा मेरा विश्वास है। त्रिलोकसार के दुरूह स्थलों को इन्होंने सुगम बनाया है और माधवचन्द्र विद्यदेवकृत संस्कृत टीका सहित मुद्रित प्रति में जो पाठ छूटे हुए थे अथवा परिवर्तित हो गये थे उन्हें आपने अपनी प्रति पर पहले से ही ठीक कर रखा था। पूना और ब्यावर से प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों से जब मैंने इस मुद्रित टीका का मिलान किया तब श्री मुख्तारजी के द्वारा संशोधित पाठों का मूल्याङ्कन हुअा।" लजी M.A. Ph. D. D. Litt. धवल पू० २२, प्राक्कथन में लिखते हैं "सहारनपुर निवासी श्री रतनचन्दजी मुख्तार और उनके भ्राता श्री नेमचन्दजी वकील-ये सिद्धान्त ग्रन्थों के स्वाध्याय में असाधारण रुचि रखते हैं। यही नहीं, वे सावधानीपूर्वक समस्त मुद्रित पाठ पर ध्यान देकर उचित संशोधनों की सूचना भी भेजने की कृपा करते हैं जिसका उपयोग शुद्धिपत्र में किया जाता है। इस भाग के लिये भी उन्होंने अपने संशोधन भेजने की कृपा की है। इस निस्पृह और शुद्ध धार्मिक सहयोग के लिये हम उनका बहुत उपकार मानते हैं । उन्होंने एक शुद्धिपत्र आदि से अन्त तक के भागों का भी तैयार किया है जिसका पूर्ण उपयोग अन्तिम भाग में किया जायगा। मैं अपने इन सब सहायकों का बड़ा आभार मानता हूँ।" [३-२-१९५५] ७. श्री इतरसेन जैन, जैन मेटल वर्क्स, मुरादाबाद से लिखते हैं "श्रीमान् रतनचन्दजी, नमस्कार । आज जैनदर्शन व जैन गजट में देखकर बहुत हर्ष हुआ कि आपने व भाई नेमचन्दजी ने सहारनपुर के नाम को धर्म के सम्बन्ध में रोशन कर रखा है। हमारे शहर में पहले भी लाला जम्बूप्रसादजी की बदौलत मुकदमा सम्मेदशिखर में रोशन हो चुका है । जितनी प्रशंसा आपके लिए अखबार में लिखी है वह आपके धार्मिक मेहनत से बहुत कम है। मेरी तो यही प्रार्थना है कि आपका धर्मप्रताप दिन ब दिन बढ़े और आपका यश हो।" [६-१२-१९६०] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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