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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६६ उनके भी कई शिष्य हैं, सभी सुलझे मस्तिष्क के हैं। सभी शिष्य करणानुयोग में पारङ्गत हैं। उनकी तार्किक बुद्धि भी विलक्षण है। पूज्य पण्डितजी से पत्र द्वारा एवं प्रत्यक्ष चर्चा में चर्चित हुए कुछ प्रश्नोत्तर सब के लाभ के लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँप्रश्न-१: क्या केवलज्ञान आत्मा को जानता है ? उत्तर : केवलज्ञान स्वयं पर्याय है अतः उसकी दूसरी पर्याय नहीं हो सकती। अर्थात् यदि केवलज्ञान को स्वपरप्रकाशक माना जाएगा तो उसकी एक काल में स्वप्रकाशक और परप्रकाशक रूप दो पर्याय माननी पड़ेंगी किन्तु केवलज्ञान स्वयं परप्रकाश स्वरूप ही एक पर्याय है, केवलज्ञान न तो जानता ही है और न देखता ही है; क्योंकि वह स्वयं जानने व देखने रूप क्रिया का कर्ता नहीं है। अतः ज्ञान को अन्तरंग-बहिरंग दोनों का प्रकाशक न मान कर जीव स्व और पर का प्रकाशक है ऐसा मानना चाहिए"ण केवलणाणं जाणइ पस्सइ वा, तस्स कत्तारताभावादो" -जयधवला, पुस्तक १ पृष्ठ ३२५-२६ प्रश्न-२ : क्या परमाणु यन्त्रों से देखा जा सकता है ? उत्तर : परमाणु को यंत्रों से देख पाना सम्भव नहीं। व्यवहार परमाणु यन्त्रों से देखा जा सकता होगा परन्तु इससे अनन्तगुणा हीन परमाणु वस्तुतः यन्त्रों से देखा जाना सम्भव नहीं है । प्रश्न-३: क्या प्रत्येक वस्तु सत् है ? क्या खर विषाण भी सत् है ? उत्तर : प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय की अपेक्षा सत् है और पर चतुष्टय की अपेक्षा असत् है। खर विषारण भी कथञ्चित् सत् है। ( जयधवला १/२३१ एवं राजवातिक ) प्रश्न--४ : सागर किसे कहते हैं ? यह असंख्यात वर्ष रूप है या अनन्त वर्ष रूप ? उत्तर : २००० कोस व्यास का २००० कोस गहरा खडा खोद कर इसे ७ दिवस पर्यन्त आयूवाले उत्तम भोगभूमि के मेढ़े के अविभागी रोमांशों (बालागों) से ठसाठस भर दिया जाय । तदनन्तर १०० वर्षों में एक-एक रोमांश निकालते-निकालते यावत् काल में खड्डा खाली हो, वह काल व्यवहार पल्य है। उपर्युक्त रोमांश के बुद्धि द्वारा असंख्यात कोटि वर्ष समय समूह प्रमाण और अंश कल्पित करके फिर प्रत्येक अंश को प्रति समय निकालने पर जो समय लगे, उसे उद्धार पल्य कहते हैं। एवं पश्चात् उक्त रोमांश के बुद्धि द्वारा पुनः १०० वर्ष के समय समूह प्रमाण अंश कल्पित करके प्रत्येक रोमांश को एक-एक समय से निकाला जाय तो इसमें लगने वाला काल अद्धापल्य कहलाता है। १० कोटाकोटि अद्धापल्यों का एक सागर होता है। यह असंख्यातवर्षरूप होता है। (षट्खण्डागम-प्रस्तावना, सर्वार्थसिद्धि आदि ) प्रश्न-५ : माहेन्द्रकल्प में श्रेणीबद्ध विमान कितने हैं ? उत्तर : माहेन्द्रकल्प में श्रेणीबद्ध विमान २०३ हैं। (लोकविभाग ग्रन्थ के दशम विभाग में पृष्ठ १८१ पर देखिए।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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