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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] सफल स्वाध्यायी * श्री मोहनलाल जैन सेठी गया ( बिहार ) स्व० पण्डित श्री रतनचन्दजी सा० मुख्तार से हमारा साक्षात् परिचय उन दिनों हुप्रा जब हमारे स्व० पूज्य पिता श्री ब्र० छोगालालजी श्री पार्श्वनाथ दि० जैन शान्तिनिकेतन, उदासीन आश्रम ईसरी में रहा करते थे । उस समय पूज्य अध्यात्म योगी स्व० श्री गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य, क्षुल्लक अवस्था में वहाँ विराजमान थे । पूज्य वर्णीजी महाराज स्वाध्याय पर काफी जोर दिया करते थे । श्री पं० रतनचन्दजी एवं उनके भ्राता श्री पं० नेमिचन्दजी भी वहाँ उपस्थित थे । श्राप दोनों के स्वाध्याय क्रम का तो कहना ही क्या था, जब भी देखो स्वाध्याय एवं धार्मिक चर्चा चालू है । कई विषयों पर मैंने भी आपसे प्रश्न किये थे एवं उचित उत्तर पाकर सन्तुष्ट भी हुआ हूँ । स्वाध्याय करने का जो आगमानुकूल मार्ग आपने बताया वह वास्तव में बहुत ही लाभदायक है । श्रापका कहना था कि "जिस किसी ग्रन्थ का स्वाध्याय किया जाय, आद्योपान्त किया जाय और कम से कम तीन बार अवश्य किया जाय। इसके बिना स्वाध्याय का सही फल प्राप्त नहीं हो सकता है ।" बात बिल्कुल सही है । किञ्च सभी बातें ग्रन्थ विशेष के एक ही अध्याय में नहीं लिखी जातीं श्रतः पूर्ण स्वाध्याय करने के बाद एकान्ती बनने की सम्भावना नहीं रहती है । आज के युग में जो झगड़े चलते हैं, हमारा खयाल है कि उनका एक कारण यह भी है कि आचार्यों द्वारा प्रणीत पूरे ग्रन्थों को न पढ़कर केवल जो जो प्रसंग अपनी मान्यता के अनुकूल पड़ते हैं, उन्हीं को पढ़ लेते हैं । आज प्रायः उपदेश भी इसी तरह का होता है, ऊहापोह में जो समय नष्ट होता है उसका कारण भी यही प्रतीत होता है । श्री पंडित रतनचन्दजी साहब के लेख, शंका समाधान एवं संशोधन कार्य देखने से मालूम पड़ता है कि आप परम्परा के पोषक थे और जैन सिद्धान्तों की रक्षा हेतु बराबर प्रयत्नशील रहते थे । आज जरूरत है ऐसे ही विद्वानों की, जो अज्ञान अन्धकार से जीवों की रक्षा करें और अनादि के प्रकाश को अस्त न होने दें। यही मेरी श्रद्धांजलि है । मुझे हर्ष है कि ऐसे विद्वान् के प्रति मुझे श्रद्धांजलि अर्पित करने का अवसर प्राप्त हुआ । अपूरणीय क्षति * सेठ श्री हरकचन्दजी जैन, रांची [ ६७ सिद्धान्तभूषण श्रीमान् स्व० रतनचन्दजी मुख्तार जैन समाज के जाने माने ख्याति प्राप्त विद्वान् थे । आपने चतुरनुयोगमयी जिनवाणी का गहन अध्ययन कर जैन जनता को उसका रसास्वादन कराया था। आप जैन सिद्धान्त के पारंगत विद्वान थे। अनेक जैन ग्रन्थों का आपने सम्पादन किया । प्रकृति से सौम्य एवं सरल थे । देवशास्त्र गुरु पर आपकी अकाट्य भक्ति थी । जैन सिद्धान्त के ऐसे विद्वानों का जितना भी सम्मान - अभिनन्दन किया जावे उतना ही जैन समाज के लिये श्रेयस्कर है । आपका अभाव निश्चित ही अपूरणीय है । परमात्मा आपको शान्ति प्रदान करे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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