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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६५ धीरे-धीरे श्री रतनचन्द दोज के चाँद के समान बाल्यावस्था को प्राप्त हुए। क्रमश: श्री रतनचन्दजी की पढ़ाई हुई। आपने अंग्रेजी व उर्दू में दक्षता प्राप्त की एवं यथाकाल वकालात आरम्भ की। प्रायु के पञ्चचत्वारिंशत्तम वर्ष में वकालात का परित्याग कर आपने अात्म मार्ग में अवगाहन की सोची। यद्यपि इस वृद्धावस्था प्रापक वय तक संस्कृत, प्राकृत तथा हिन्दी नहीं जानते थे, परन्तु स्वयोग्यता से आपने स्वयं के लिए अपरिचित संस्कृत, प्राकृतादि भाषा वाले ग्रन्थों का ही सतताऽध्ययन करके ग्रन्थों एवं इन भाषाओं में प्रवेश पाया। कई वर्षों के अध्ययन-नरन्तर्य ने आपको चतुरनुयोग दक्ष कर दिया और यथा शीघ्र आप सिद्धान्त ज्ञानियों में शिरोभूत हो गये ।। - आप शास्त्रज्ञान के महान् दानी थे। नाना स्थानों से आने वाली चतुरनुयोगी शंकाओं का तुष्टिप्रद समाधान भी शास्त्रप्रमाण से प्रदान करते थे। करीब सप्तविंशति वर्षों से पर्युषण पर्व में अन्यत्र नगरों व गाँवों में जाकर स्वर्गापवर्गद उपदेश भी देते थे। समय-समय पर साधर्मी भाइयों को यथाकाल यथाशक्ति गुप्त आर्थिक सहयोग भी दिया करते थे; जबकि आप कोई विशिष्ट सम्पन्न (आर्थिक दृष्टि से) नहीं थे। धन्य हो आपको। आपने अपने जीवन का बहुत समय मुनियों व श्रावकों को प्रज्ञाप्रदान करने में व्यतीत किया था। स्वाध्यायशील मुनिसंघों में आप प्रतिवर्ष यथा सम्भव जरूर पधारते थे एतदर्थ सकल दि० जैन आपके ऋणी हैं। इस समय के, आप वे प्रथम प्रकाण्ड विद्वान् थे जो विद्वान् होकर आदर्श त्यागी भी थे। यों तो कहलाने में दो प्रतिमाधारी थे, परन्तु पालक इससे भी अधिक थे। आप कुशल टीकाकार व लेखक भी थे। पालाप पद्धति आदि ग्रन्थों की टीकाएँ भी आप द्वारा लिखी गई हैं। प्रवचनसार, त्रिलोकसार, कर्मकांडादि ग्रन्थों के सम्पादक व धवला सदृश ग्रन्थों के संशोधक भी थे। अभीअभी लब्धिसार-क्षपणासार, जीवकाण्ड की टीकाएँ भी रची थीं। वस्तुतः इस विभूति को यदि भारत भूषण भी कह दिया जाय तो अनुचित नहीं होगा। पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री आपको सचेल मुनिवत् कहते थे। सभी की दृष्टि में आप करणानुयोग के पारङ्गत सूरि थे। श्री कानजी स्वामी ने एक चर्चा में, उदयपुर में कहा था कि........"इसके बारे में विशेष तो मुख्तार सा० . जानें"। तब श्री डा० हुकमचन्दजी ने कहा कि, कौन मुख्तार ? रतनचन्द मुख्तार क्या ? स्वामीजी बोले 'हाँ' रतनचन्द मुख्तार, सहारनपुर वाले। धन्य हो, जिन्हें स्वामीजी ने भी क्षेत्र विशेष में अपने से विशिष्ट (ज्यादा) ज्ञानी बताया। एक बार सैद्धान्तिक चर्चा हो रही थी तथा समाधाता श्री पं० ब्र० कुञ्जीलालजी के द्वारा समाधान के उपरान्त भी शंकाकार की शंका परिहत होने के बजाय वृद्धिङ्गत ही होती जा रही थी तो ब्र० पं० कुञ्जीलालजी ने कहा कि "इसके विषय में विशेष तो श्री रतनचन्द मुख्तार से जाकर पूछो वे सागमप्रमाण समाधान करेंगे, बस ! धन्य हैं ऐसे ज्ञानी पुरुष जिनके ज्ञान को सभी ने महान् स्थान दिया है। उनकी बोधि पर जनगण गौरवान्वित अनुभव करता है। विचार आता है कि परम पूज्य मुनिश्री गणेशप्रसादजी (वर्णीजी) यदि २८-११-८० तक होते तो उन्हें अपने शिष्य रतनचन्द को इतना बड़ा प्राज्ञ देखकर कितना महान् आनन्द होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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