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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६१ नहीं हो सकता। आपकी कर्मठता, उत्साह, धैर्य, साहस एवं प्रमादरहित जीवनचर्या मेरी प्रेरणा एवं मार्गशिका हैं । मैं इन गुणों को अपने जीवन में ढालने का अथक प्रयास करता रहूँगा और जब ये गुण मेरी जीवनचर्या के अभिन्न अङ्ग बन जायेंगे तभी मेरी श्रद्धा पूर्णता को प्राप्त होगी। संस्मरण * एक बार रात्रि के समय एक मुमुक्षु आपसे कहने लगे कि पण्डितजी ! निमित्त कुछ भी नहीं होता। पण्डितजी ने उन महाशयजी से पूछा कि ऐसा किस आर्ष ग्रन्थ में लिखा है ? ज्यों ही वे मुमुक्षु ग्रन्थ लाने को तत्पर हए त्यों ही पण्डितजी ने टेबिल लेम्प बुझा दिया। इस पर मुमुक्षु बोले-पण्डितजी ! आपने लाइट क्यों बुझाई ? अब आपको प्रमाण कैसे दिखलाऊँ ? इस पर पण्डितजी ने उत्तर दिया कि 'निमित्त तो कुछ भी नहीं करता, अतः आप अपने उपादान से प्रमाण दिखलायो, मैं उसे अपने उपादान से देख लूगा । लाइट तो निमित्त मात्र है, वह आपके कथनानुसार व्यर्थ है।' इस पर वे मुमुक्षु झेप गये और उस दिन से निमित्त को मानने भी लगे। * श्री कानजी स्वामी से आपका प्रथम परिचय सन् १९५७ में श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर हआ । १३ मार्च सन् १९५७ को दिन में दो बजे कानजी स्वामी का प्रवचन हो रहा था। मञ्च पर उनके साथ पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० फूलचन्द्रजी तथा आप भी बैठे हए थे। स्वामीजी समयसार की ७२वी गाथा पर प्रवचन कर रहे थे। उपदेश के बीच में वे निमित्त को हेय कह कर उसकी उपेक्षा करते जा रहे थे। उनका उपदेश समाप्त होने से पूर्व ही अचानक वर्षा प्रागई और पण्डाल में श्रोतासमुदाय पर वर्षों का जल गिरने लगा । यह देख कर स्वामीजी बोले कि उपदेश का समय पूर्ण होने में यद्यपि ७ मिनट शेष रह गए हैं परन्तु वर्षा आ गई है अतः प्रवचन समाप्त किया जाता है। यह सुनकर आप तत्काल ही बोल उठे कि "अाज निमित्त की व्याख्या हो गई।" किसी श्रोता ने पूछ लिया कि क्या ? तो आप बोले कि "जो कान पकड़ कर बीच में ही उठा दे उसे निमित्त कहते हैं।" यह सुनकर स्वामीजी खिसिया गए और श्रोतावृन्द खिलखिला कर हँस पड़े । आदर्श व्यक्तित्व 'सादा जीवन उच्च विचार' की उक्ति आपके जीवन में पूर्ण रूपेण चरितार्थ हुई थी आपका व्यक्तित्व बड़ा सरल था, भोजन भी सामान्य और अत्यल्प । भाद्रमाह में नीरस भोजन लेते थे। आपका कहना था कि जब हम स्वाध्याय करें तो चाहे एक दो पृष्ठ या कुछ पंक्तियाँ ही पढ़े परन्तु उन्हें मस्तिष्क में अच्छी तरह उतारने का प्रयत्न करें। किसी भी ग्रन्थ का स्वाध्याय कम से कम तीन बार अवश्य करना चाहिए। एक समय में केवल एक ही ग्रन्थ का स्वाध्याय करना चाहिए तथा उस ग्रन्थ का स्वाध्याय पूर्ण होने के उपरान्त ही अन्य ग्रन्थ लेना चाहिए। एक साथ एक से अधिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से उपयोग बदल जाता है जिससे कोई भी विषय ठोस रूप में तैयार नहीं हो पाता । आपका सिद्धान्त था कि "Work while you work and play while you play. Work done half heartedly is neverdone." अर्थात् कार्य के समय कार्य करो, खेल के समय खेलो। आधे मन से या कि कार्य न किए हए के समान है अर्थात वह असफल होता है। अन्तिम अवस्था यह बात मेरी कल्पनाओं में भी नहीं थी कि जिस महापुरुष के साहचर्य में मेरे धार्मिक जीवन का बचपन बीत रहा है वह मेरे धार्मिक वय की तरुणावस्था से पूर्व ही कालकवलित हो जाएगा। परन्तु "जातस्य हि ध्र वो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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