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________________ ४६ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । संवारा एवं संभाला। यह जैन श्रमणसंघ का अहोभाग्य है कि वह ज्योतिर्मय महादीप इतनी बड़ी देन हमें जाते-जाते दे गए, इसके लिए हम सदैव उनके ऋणी रहेंगे। । -उप प्रवर्तिनी साध्वीश्री मगनश्री जी म. (खद्दरधारी, शासनज्योति स्व. महार्या श्री मथुरा देवी श्रद्धा के इन कणों में म. सा. की सुशिष्या) एक कण मेरा मिला लें। इस संसार में अनादि काल से दो धाराएँ बह रही हैं-एक भौतिक धारा, दूसरी आध्यात्मिक धारा; जिसमें भौतिक धारा कर्म -उप प्रवर्तिनी श्री आतावती जी म.. प्रधान है तथा आध्यात्मिक धारा धर्मप्रधान है। कर्म प्रवृत्तिप्रधान है, भारतीय संस्कृति में संत परम्परा का एक अनूठा ही स्थान रहा धर्म निवृत्तिप्रधान। निवृत्ति ही मोक्ष है इसलिए धर्म मोक्ष का कारण 8 है। प्राचीन इतिहास का अवलोकन किया जाए तो ऐसा दृष्टि पथ में } है। जिस प्रकार असि, मसि, कृषि कर्म प्रधान व्यक्ति के साधन हैं आता है कि संत भारत की आत्मा है। भारत संतों की तपोभूमि रही । उसी प्रकार धार्मिक व्यक्ति भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप पर चलता प्रय है। यहाँ समय-समय पर अनेकानेक महापुरुषों का संत एवं तपस्वी है। ये चारों धर्म के अंग हैं इन्हें मोक्ष का साधन भी कह सकते हैं। साधक आत्मा के रूप में जन्म होता रहा है। यह भारत की पावन जैसे चक्रवर्ती गज, अश्व, रथ, पदाति के द्वारा ६ खण्डों को साध वसुन्धरा संत जनों की साधना की सुरभि से सदा-सदा से सुरभित I लेता है वैसे ही धर्मात्मा भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप के दम पर Poe रही है। जब हम महान् संतों का नाम स्मरण करते हैं तो बहुत से आत्म-विजय प्राप्त कर लेता है। चक्रवर्ती के पास चौदह रल एवं व्यक्तित्व साधकों के चित्र हमारे मानस पटल पर उभरते हैं। कुछ नव-निधि होती है। जबकि धर्मात्मा साधक के पास रत्नों की गिनती 25 ऐसे विश्वविख्यात हुए जिन्होंने अपना समग्र जीवन ज्ञानाराधना, . ही नहीं। धर्म चक्रवर्ती तीर्थंकर भगवान होते हैं तथा धर्मगुरु मुनि साधना, तप और संयम दृढ़ता में रहकर व्यतीत किया और जीवन | भी होते हैं। ऐसे महामुनि साधना के सजग प्रहरी परमेष्ठी पद के P3 के अंतिम क्षण तक अपनी साधना की यश सुगन्धि जन-जन में धारक उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. सा. आचार-विचार महकाते हुए अपनी सहिष्णुता, गम्भीरता, उदारता, महानता, की समग्रता युक्त आत्म-विजयी साधक थे। तेजस्विता, वाक्पटुता आदि गुणों की महक जनता जनार्दन के आपश्री का व्यक्तित्व तेजस्वी था। संयम-साधना द्वारा आपने मानसपटल पर सदा-सदा के लिए अविस्मरणीय छाप छोड़ दी। भौतिकवाद की चकाचौंध में फंसे हुए व्यक्तियों को सच्चा मार्ग-दर्शन ऐसे ही संतों की दिव्य माणिक्य माला में जैन संस्कति में दिया। जैन साहित्य की आपने अविस्मरणीय सेवा की। यही कारण है अनुपम रल, मेधावी अध्यात्म योगी, जैन संघ की उज्ज्वल विभूति कि हजारों श्रद्धालुगण आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रभावित हैं। देदीप्यमान नक्षत्र जन-जन के आराध्य यशस्वी, मनस्वी, वचस्वी यथानाम तथागुण के समान आपका जीवन तीर्थ स्वरूप ही था। मुनि पुङ्गव आगम वारिधि स्वनाम धन्य उपाध्याय स्व. श्री पुष्कर जो भी आपकी शरण में आया वही पावन बनता चला गया। आप मुनि जी म. हुए। जिन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग संयम सर्वगुणसम्पन्न महापुरुष थे आपका प्रत्येक कार्य शुभ और की कठोर साधना में ही व्यतीत किया। कल्याणपरक था। आपकी छत्र-छाया संघ के लिए वरदान रूप थी। आप दीर्घ संयमी बने एवं यत्र-तत्र पद यात्रा करते हुए भले ही नाशवान शरीर से हमारे मध्य नहीं हो किन्तु यश शरीर से जिनवाणी का भरपूर प्रचार-प्रसार किया। जो भी आपके श्री चरणों सदैव जैन जगत में आप सदा जीवित ही रहोगे। में उपस्थित होता आपके व्यक्तित्व एवं साधना से ओत-प्रोत जीवन । हे महादीप! तूने असंख्य दीप जलाए थे, को देख सदा के लिए चरण सेवक बनता और हृदय में अनंत हो गए निहाल जो सवाली बनकर आए थे। असीम आस्थाएँ लेकर गुनगान करता जाता। इस प्रकार से हमारे पास अब उनका प्रकाश है, उपाध्यायश्री जी का सम्पूर्ण साधनामय जीवन हम सबके लिए उससे करना हमें आत्म-विकास है। प्रेरणा स्रोत एवं आलम्बन रूप है आज वह भले भौतिक देह में हमारे मध्य नहीं हैं किन्तु उनकी साधनामयी यशोगाथाएँ इतिहास पावन गुरु की स्मृति में श्रद्धा पुष्प समर्पित। सदा गुनगुनाता रहेगा और भावी पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक रहेंगे उनके महागुण। आज उनकी पावन स्मृति के प्रकाशन में मुझे भी श्रद्धायुक्त पुष्पाञ्जलि अर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त कर परम हर्ष धर्म से प्राप्त की गई लक्ष्मी को धर्म में ही लगाना चाहिये। हुआ। हम सबके लिए यही कर्तव्य है कि हम उस महापुरुष के गुणों क्योंकि धर्म लक्ष्मी को बढ़ाता है और लक्ष्मी धर्म को बढ़ाती है। का अनुसरण करें। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी। किं बहुना, इत्यलम्। -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि Fepali giriginetrialigraine Forejivate spersonal use 00000 0 00 0 0 R acwwwsanelery.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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