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________________ 000000000000000sands POS३६ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । एक साहित्यमनीषी कह दिया जाये तो कोई अतिशयोक्ति का प्रश्न ही । हमारे हृदय की सारी मलिनताएँ, सारी अशान्ति गायब हो जाती नहीं उठता। सरस्वती तनय होने से ही श्रमणसंघ ने उन्हें थी। जिनका विराट् व्यक्तित्व हमें स्वयं ही मोह लेता था। जिन्होंने 'उपाध्याय' के गौरवपूर्ण पद से अलंकृत किया था। पुष्कर का कार्य अपने सान्निध्य में आये हर लौहकण को उज्ज्वल स्वर्ण बना दिया यही है कि अज्ञान का मल शमन करके ज्ञान का निर्मलत्व पैदा करना। एक समय उपाध्यायप्रवर शिष्य समुदाय सहित बेंगलोर पधारे। व अकेला व्यक्ति कुछ भी कार्य सम्पादित करने की ताकत नहीं आपश्री की सद्प्रेरणा से अष्ट दिवसीय शिविर लगा, सौभाग्य से रखता। उसे दूसरे का सहयोग अवश्य लेना पड़ता है। परस्पर मुझे भी आपका सुसान्निध्य प्राप्त हुआ। शिविर के प्रथम दिवस ही आदान-प्रदान करना ही महावीर का मुख्य ध्येय था। जो बिखर मुझे उपाध्याय श्री ने फरमाया-"लोकेश बाँठिया तुम शिविर में चुका है उसकी शक्तियाँ भी संकीर्णता के दायरे में सिमटकर रह प्रथम पुरस्कार प्राप्त करोगे।" मैं तन-मन से अभ्यास करने लगा, जाती हैं। अखण्ड में शक्ति भी अखण्डित रहती है। इसी बात को । शिविर समापन समारोह के दिन मैं प्रथम पुरस्कार से सम्मानित 359 समझा था राजस्थानकेशरी जी ने। संघ में व्याप्त फिरका परस्ती से किया गया। TET उन्हें उद्विग्नता हो गयी। श्रमणसंघ रूपी अखण्ड संस्था को निर्मित आप वाणी के जादूगर थे, कितनी भी दुर्भावना लेकर कोई करने में उनका अविस्मरणीय योगदान समाज कदापि विस्मृत नहीं आए आपके मधुर वचनों और मीठी मुस्कान से प्रभावित होकर Poad कर पाएगा। टूटी-बिखरी महावीर की मोती-माला को पुनः एकसूत्र वह सदा के लिए आपका हो जाता था। आप श्रमणसंघ के एक र में पिरोने का कार्य उनकी अप्रतिम सूझ-बूझ से ही हुआ था। पुष्कर ओजस्वी, तेजस्वी उपाध्याय रत्न थे। जिस किसी ने आपको निकट ॐ के जलकण जैसे समवेत रूप में रहते हैं वैसे ही श्रमणों के पुष्कर से देखा है, उनके मन में आपके प्रति श्रद्धा और प्रेम बढ़ा है। आप Page को एक जगह समन्वित करने के श्रेय में उनका भी बहुत बड़ा एक तेजपुंज थे। आपने सोए हुए समाज को जगा कर सही दिशा का ज्ञान कराया। एक सैनिक के समान आपका जीवन था। सैनिक -20 वे सामाजिक ही नहीं बल्कि परम आध्यात्मिक भी थे। जप अपने कर्तव्य-पालन में सदैव जागरूक रहते थे। पण साधना उनकी सदैव निर्बाध रूप से चलती रहती थी। आत्मा से उपाध्याय श्री में पवित्रता, मधुरता, प्रसन्नता और व्यवहारOG परमात्मा बनने की ओर उनके कदम सतत् चलायमान रहते थे। कुशलता ये चारों गुण विद्यमान थे। आपके जीवन की अनुपम * उन्हें अध्यात्म पथ के आरोही कह दिया जाये तो कोई अत्युक्ति विशेषताएँ थीं। उनकी पावन स्मृति से मेरा हृदय सुवासित है। नहीं। पुष्कर भी पावन होता है। परमात्मा (मोक्ष) को पावन दूसरे । रह-रहकर आज उनकी यादें मेरे मन को कचोट रही हैं। ॐ शब्दों में कहते हैं। आपका जीवन फूलों से कोमल और गंगा से निर्मल था, 40 आज श्रद्धेय पूज्यवर्य उपाध्यायश्री हमारे बीच सदेह उपस्थित रत्नमणि से पावन और शशि से उज्ज्वल था। अस्तु ! नहीं हैं लेकिन उनके आदर्श, जीवंतता अवश्य प्रकट कर रहे हैं। वे देहातीत जरूर हो गए हैं लेकिन उनका साहित्य सजीव उपस्थिति __ अनेक गुणों से युक्त आपके महान् जीवन का मैं क्या वर्णन जरूर दर्शा रहा है। करूँ? मेरा हृदय श्रद्धा से पूर्णतः अभिभूत है। हृदय आपको कभी भुला नहीं सकता। ऐसी महान् विभूति के श्रीचरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ। एक मधुर संस्मृति "तेरे गुण की गौरव गाथा, धरती के जन-जन गायेंगे। - लोकेश ऋषि' और सभी कुछ भूल सकेंगे, पर तुम्हें भुला न पायेंगे।" (पं. रत्न प्रवर्तक श्री कल्याण ऋषि जी म. के सुशिष्य) HD हाथ था। एक आकर्षक व्यक्तित्व -अरुण मुनि इस विषम पाँचवें आरे में जब मानव मानव से भिड़ रहा है, त्राहि-त्राहि मची हुई है, मनुष्य बेभान होकर दुनियां को चुराने का R स्वप्न देख रहा है-ऐसे विकट समय में हमें शान्ति व अहिंसा का 96 मार्ग बताने एक महान मूर्ति उपस्थित हुई थी इस धरती के भगवान तुल्य “राजस्थान केसरी उपाध्याय प्रवर पूज्य श्री पुष्कर मुनि जी म. सा.।" अहा! कैसी सुन्दर-शीतल-शान्त-भव्य-प्रेरणापुंज-जन-जन नायक300 सजीव मूर्ति थी हमारे उपाध्यायप्रवर की। जिनके दर्शन मात्र से परम श्रद्धेय वात्सल्यवारिधि पूज्य उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के मधुर संस्मरण लिखने की उत्कट इच्छा हो रही है, पर लिखते-लिखते मुझे विचार आ रहा है कि क्या लिखू ? क्योंकि पूज्य उपाध्याय श्री का मुझे अल्प परिचय है। परम श्रद्धेय SHRSS Relan Education internationalesa 00:00RROR 550 p a 0 63 Private Personal use onlyo
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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