SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 796
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । संलेषना-संथारा के कुछ प्रेरक प्रसंग 00000000000000000000 जी करता रहता है। -उपाध्यायश्री केवल मुनिजी संलेखना और संथारा के विषय में जो कुछ लिखा गया है, क्षणों में भी गजसुकुमार वैसे ही शान्त और ध्यान लीन रहे। शरीर उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह जीवन की उस निष्काम, जल रहा है, रुधिर माँस जल रहा है, हड्डियाँ भी जल रही है; 19060030निःसंग और स्थितप्रज्ञ स्थिति में प्रवेश है, जहाँ न तो भोगों की परन्तु गजसुकुमार को जैसे इस वेदना से कुछ भी लेना-देना नहीं। Heap.. कामना शेष रहती है, न शरीर की आसक्ति। क्षुधा की पीड़ा, शरीर वे सोचते हैं-देह जलने पर मेरी आत्मा नहीं जलती, मेरे ज्ञान-दर्शन DED की वेदना, स्वजन और मित्रों की ममता और कषायों की तपन- और सुखमय स्वरूप पर कोई भी आँच नहीं आ रही है। जिसने सब कुछ वहाँ शान्त हो जाती है। संयोग-वियोग जनित घटनाएँ। मुझे यह उपसर्ग किया है वह तो मुझे संसार से मुक्त होने में उसके अन्तर्मन को प्रभावित तो क्या, स्पर्श भी नहीं कर पाती। सहायता करने वाला मित्र है, सहायक है। इस प्रकार पवित्र प्रसन्न आलोयणा (आत्म-निरीक्षण एवं प्रायश्चित्त) द्वारा वह अपने } मनःस्थिति में ही खड़े-खड़े उनकी समूची देह लकड़ी के ढाँचे की मन-मस्तिष्क की शुद्धि कर लेता है। इस प्रकार साधक परम प्रसन्न, तरह जल जाती है परन्तु गजसुकुमार की समाधि, मारणांतिक शान्त और निर्विकार स्थिति में आत्म-रमण करने लगता है। सुख । संलेखना नहीं टूटती। उसी रात्रि में उनका मोक्ष हो जाता है। दुख की बाह्य अनुभूतियाँ उसके अन्तर् में प्रवेश नहीं कर पातीं। मुनि गजसुकुमार ने यद्यपि दीर्घकालीन संलेखना संथारा का अन्तर्तम में वह प्रतिपल परमानन्द-परम प्रसन्न स्थिति का अनुभव आचरण नहीं किया था, परन्तु एक ही रात्रि के समाधियोग में अपार सहिष्णुता और आत्म-लीनता का जो उदाहरण प्रस्तुत किया, 50000 प्राचीन काल से लेकर आज तक अगणित साधकों ने इस पथ वह समाधिमरण का एक अनूठा उदाहरण है।' SonD. का अनुसरण कर जीवन को कृतार्थ किया है, मृत्यु को मंगलमय इसी अन्तकृद्दशा सूत्र में इस प्रकार के नब्बे साधकों का बनाया है और जीवन के अन्तिम क्षणों में उस दिव्य स्थिति का वर्णन आता है। जिन्होंने विविध प्रकार की दीर्घकालीन तपस्याएँ अनुभव किया है जिसका वर्णन शब्द नहीं कर सकते। केवल की, काली-महाकाली आदि आर्याओं ने तथा गौतम कुमार, जाली, अन्तिम समय में तपस्वि-साधकों के भावों से प्रकट होता है। उनकी मयालि, आदि अणगार श्रमणों ने पहले तपस्या करके शरीर को प्रसन्न मुद्रा से झलकता है अद्भुत तेज, प्रकाश और अनिर्वचनीय कृश किया, फिर धीरे-धीरे मासिक अनशन, मारणांतिक संलेखना शान्ति। संथारा द्वारा शरीर त्यागकर मोक्ष प्राप्त किया। जैन आगमों में इस प्रकार के अनेकानेक वर्णन उपलब्ध हैं, धन्ना अणगार की संलेखना-संथारा जिन्हें पढ़/सुनकर उन साधकों की इस दिव्य स्थिति की कल्पना की जा सकती है। अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र में काकंदी नगर में जन्मे धन्ना अणगार आदि तपस्वियों के जो वर्णन उपलब्ध हैं, उन्हें पढ़ने से मृत्युंजयी-गजसुकुमार मन रोमांचित हो उठता है। सुख-सुविधाओं में पलने वाला, धन्ना जैन आगमों में समाधिमरण की एक बहुत प्राचीन घटना है- जैसा श्रेष्ठीपुत्र जब विरक्त होकर साधना पथ पर बढ़ता है तो पीछे sarosaca समत्वयोगी गजसुकुमार की। मुड़ कर नहीं देखता। स्वाध्याय, ध्यान आदि के साथ-साथ लम्बी वासुदेव श्रीकृष्ण के छोटे भाई युवक गजसुकुमार भगवान तपस्याएँ करते हुए उसके सुकुमार सम्पुष्ट देह की क्या स्थिति हुई अरिष्टनेमि के पास जिस दिन दीक्षा लेते हैं, उसी दिन मध्यान्ह के इसका रोमांचक वर्णन आगम की भाषा में इस प्रकार हैबाद वे महाकाल श्मशान में जाकर एक अहोरात्रि की महाभिक्षु “दीर्घ तपस्या के कारण धन्ना अणगार के शरीर का रुधिर प्रतिमा धारण करके ध्यानस्थ हो जाते हैं। कायोत्सर्ग की इस मुद्रा माँस सब कुछ सूख गया था। उनकी कटि (कमर) इतनी पतली हो में वे देह के आधार पर स्थित जरूर हैं, परन्तु देह के सुख-दुख की गई थी, जैसे ऊँट का पैर हो, अथवा किसी बूढ़े बैल का पैर हो। अनुभूतियों से मुक्त होकर आत्मध्यान में लीन हो जाते हैं। उस उनके घुटने इतने दुर्बल कृश हो गये थे, जैसे मयूर के पैर हों। समय सोमिल नामक व्यक्ति ने पूर्व वैर का बदला लेने के लिए उनके सिर पर मिट्टी की पाल बाँधी और उसमें धधकते अंगारे धन्ना अणगार का उदर माँस सूखकर ऐसे दीखता था जैसे, लाकर डाल दिये। गजसुकुमार का शरीर जलने लगा, खिचड़ी की तरह माँस और रुधिर तपने/पकने लगा। कितनी असह्य मारणांतिक दीर्घ तप के कारण उनका सम्पूर्ण शरीर सूखकर काँटा हो गया वेदना, पीड़ा हुई होगी? मन की आँखों से उस दृश्य की कल्पना था। एक कंकाल की तरह ! उसमें सिर्फ हड्डी, नसें और चमड़ी ही करने पर आज भी रोम-रोम काँपने लगता है। इस उदग्र पीड़ा के दीखती थी। रुधिर माँस का वहाँ दर्शन भी नहीं होता था। 0 00000000000000 s जलान्त /9D0D863DODHD.DAS 06.0.00ARYA 200000000 500-00:20 50.0.0.0.05 जठवल760 SEDjDeva1 AAP00.00 % are Doo30- Anal
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy