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________________ AN STDASILJEST Co0OYD SIDDOOD OCOCONO500.0000MADPa&016 संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला ६५१ / धार्मिक अनुष्ठान हैं उनका भी निषेध किया गया, दूसरी ओर समाप्त होने वाला है तो हमें मृत्यु का तिरस्कार न कर, एक आत्मघात की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन भी दिया गया है। जिस प्रकार | आदरणीय अतिथि समझ कर उसका स्वागत करना चाहिए। किन्तु जैन परम्परा में समाधिमरण का उल्लेख है, कुछ इसी प्रकार का । रोते और बिलखते हुए मृत्यु को वरण करना कायरता है। प्रसन्नता मिलता जुलता वैदिक परम्परा में भी कहीं-कहीं पर उपलब्ध होता है। के साथ मृत्यु को स्वीकार करना एक नैतिक आदर्श है। महात्मा पर उस वर्णन की अपेक्षा जल-प्रवेश, अग्नि-प्रवेश, विष भक्षण, गाँधी ने भी इस प्रकार की मृत्यु को श्रेष्ठ मृत्यु माना है। गिरिपतन, शस्त्राघात द्वारा मरने के वर्णन अधिक हैं। । हम पूर्व पृष्ठों में विस्तार के साथ बता चुके हैं कि भारत के इस प्रकार जो मृत्यु का वरण किया जाता है, उसमें मृत्यु इच्छा तत्वदर्शी महर्षियों ने केवल जीने की कला पर ही प्रकाश नहीं डाला प्रमुख रहती है, कषाय की भी तीव्रता रहती है। इसलिए भगवान् । किन्तु उन्होंने इस प्रश्न पर भी गहराई से चिन्तन किया कि किस महावीर ने इस प्रकार के मरण को बालमरण माना और इस प्रकार प्रकार मरना चाहिए। जीवन कला से भी मृत्यु-कला अधिक मरने के लिए आगम साहित्य में स्पष्ट रूप से इनकारी की। भगवान । महत्वपूर्ण है। वह नैतिक जीवन की कसौटी है। जीवन जीना यदि महावीर का मानना था कि इस प्रकार जो मृत्यु का वरण किया अध्ययनकाल है तो मृत्यु परीक्षाकाल है। जो व्यक्ति परीक्षाकाल में जाता है, उसमें समाधि का अभाव रहता है। भगवान महावीर ने जरा सी भी असावधानी करता है, वह परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो युद्ध में मरने वाले को स्वर्ग प्राप्ति की मान्यता का भी खण्डन जाता है। मृत्यु के समय जिस प्रकार की भावना होगी उसी स्थान किया। उन्होंने अनेक अन्ध विश्वासों पर प्रहार किया। पर जीव उत्पन्न होता है। जैन कथा साहित्य में आचार्य स्कन्दक का वर्णन आता है। वे अपने ५०० शिष्यों के साथ दण्डकपुर जाते हैं। समाधिमरण : एक मूल्यांकन वहाँ के राजा दण्डक के द्वारा मृत्यु का उपसर्ग उपस्थित होने पर जैन धर्म सामान्य स्थिति में चाहे वह स्थिति लौकिक हो,.. अपने ५०० शिष्यों को समभाव में स्थिर रहकर प्राण त्यागने की धार्मिक हो या अन्य किसी प्रकार की हो, मरने के लिए अनुमति प्रेरणा देते हैं। पर स्वयं समभाव में स्थिर न रह सके जिसके कारण नहीं देता। किन्तु जब साधक के समक्ष तन और आध्यात्मिक वे अग्निकुमार देव बने। अन्तिम समय की भावना अपना प्रभाव सद्गुण इन दोनों में से किसी एक को ग्रहण करने की स्थिति उत्पन्न दिखाती है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी जड़ भरत का आख्यान हो तो वह देह का परित्याग करके भी आध्यात्मिक सद्गुणों को / है। उसमें यही बताया है, भरत की हरिण पर आसक्ति रहने से उसे अपनाता है। जिस प्रकार एक महिला अपने सतीत्व नष्ट होने के } पशुयोनि में जन्म ग्रहण करना पड़ा। प्रसंग पर सर्वप्रथम अपने सतीत्व की रक्षा करती है, भले ही उसे इन सभी अवतरणों से सिद्ध है कि मृत्यु के समय अन्तर्मानस में शरीर का परित्याग करना पड़े। उसी प्रकार साधक अपने शरीर समभाव रहना चाहिए, और समभाव रहने के लिए ही संलेखना का मोह त्यागकर अपने आत्मिक सद्गुणों और संयम की रक्षा का विधान है। संलेखना और संथारा आध्यात्मिक उत्कर्ष का मूल करता है। जैन धर्म का स्पष्ट विधान है-जब तक तन की और । मंत्र है। आध्यात्मिक जीवन की रक्षा होती है तो साधक दोनों की ही रक्षा श्रमण और श्रावक दोनों के लिए संलेखना और संथारे का करें और दोनों की रक्षा करने का वह पूर्ण ध्यान रखें। सामान्य उल्लेख है। श्रावक द्वादशव्रतां का पालन करने के पश्चात् एकादश मानव और साधक में यही अन्तर है कि साधारण मनुष्य का ध्यान प्रतिमाओं को धारण करता है और आयुष्य पूर्ण होने के पूर्व देह पर केन्द्रित होता है, वह देह के लिए ही सतत् प्रयास करता है, संलेखना करके शांति और स्थिरता से देह त्याग करता है। यदि किन्तु साधक देह की अपेक्षा संयम की साधना का अधिक लक्ष्य कोई श्रावक शारीरिक शैथिल्य के कारण प्रतिमाओं को धारण नहीं रखता है, संयम की साधना के लिए ही वह देह का पालन पोषण कर सकता है, तो भी वह अन्तिम समय में संलेखना करता है। करता है और जब वह देखता है कि शरीर में भयंकर व्याधि संलेखना आत्मा को शुद्ध करने की अन्तिम प्रक्रिया है। यह व्रत उत्पन्न हो चुकी है, दुष्काल में स्वयं के साथ ही दूसरे व्यक्ति भी नहीं, व्रतान्त है। संलेखना एक प्रकार से प्राणान्त अनशन है। परेशान हो रहे हैं तो नैतिकता की सुरक्षा के लिए वह देह-विसर्जन संलेखना निर्दोष साधना है। यदि उसमें भी दोष लग जाए तो उसी के लिए समाधिमरण को स्वीकार करता है। समय आलोचना कर चित्त की विशुद्धि करनी चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता१९५ में वीर अर्जुन से श्रीकृष्ण ने कहा-वह उपरोक्त विवेचन से संलेखना का महत्व स्पष्ट है। यह जीवन जीवन किस काम का जिसमें आध्यात्मिक सद्गुणों का विनाश होता भर के व्रत नियम और धर्म-पालन की कसौटी है। जो साधक इस है। उस जीवन से मरण अच्छा है। कसौटी पर खरा उतरता है, वह अपने मानव जीवन के लक्ष्य मोक्ष ___ गांधीवादी विचाराधारा के महान् चिन्तक काका कालेलकर का } के अधिक समीप पहुँच जाता है, फिर मुक्ति रूपी मंजिल उससे दूर अभिमत है-जब हमें ऐसा अनुभव हो कि जीवन का प्रयोजन | नहीं रहती और वह उसे यथाशीघ्र प्राप्त कर लेता है। 98GD सरकण्यात 20016 SOD
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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