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________________ 2000 1 ६४८ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । में प्रबल पराक्रम है, उसमें पलायन नहीं वरन् सत्य स्थिति को में१३४ वर्णन है-जो क्लेश, भय, घमण्ड, क्रोध, प्रभृति के वशीभूत स्वीकार करना है। होकर आत्महत्या करता है, वह व्यक्ति साठ हजार वर्ष तक नरक आत्मघात और संलेखना के अन्तर को मनोविज्ञान द्वारा भी। में निवास करता है। स्पष्ट समझा जा सकता है। मानसिक तनाव तथा अनेक सामाजिक महाभारतकार१३५ की दृष्टि से भी आत्महत्या करने वाला विसंगति व विषमताओं के कारण आत्मघात की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही । कल्याणप्रद लोक में नहीं जा सकता। हैं। भौतिकवाद की चकाचौंध में पले-पुसे व्यक्तियों को यह कल्पना भी नहीं हो सकती कि शान्ति के साथ योजनापूर्वक मरण का वरण वैदिक ग्रन्थों में मरण के पाँच प्रकार प्ररूपित किए हैंकिया जा सकता है। संलेखना विवेक की धरती पर एक सुस्थित १. कालप्राप्तमरण : आयु पूर्ण होने पर जीव की जो मरण है। स्वाभाविक मृत्यु होती है, वह कालप्राप्तमरण है। संसार के सभी संलेखना में केवल शरीर ही नहीं, किन्तु कषाय को भी कृश प्राणी इस मृत्यु को प्राप्त होते हैं। किया जाता है। उसमें सूक्ष्म समीक्षण भी किया जाता है। जब तक २. अनिच्छितमरण : प्राकृतिक प्रकोप, वर्षा की अधिकता, शरीर पर पूरा नियंत्रण नहीं किया जाता, वहाँ तक संलेखना की दुर्भिक्ष, विद्युत्पात, नदी की बाढ़, वृक्ष, पर्वत आदि से गिरने पर जो DD अनुमति प्राप्त नहीं होती। मानसिक संयम, सम्यक् चिन्तन के द्वारा मृत्यु होती है, वह अनिच्छितमरण है।१३६ . पूर्ण रूप से पक जाता है तभी संलेखना धारण की जाती है। ३. प्रमादमरण१३७ : असावधानी से निःशंकावस्था में अग्नि, DD संलेखना पर जितना गहन चिन्तन-मनन जैन मनीषियों ने किया है जल, शस्त्र रज्जु, पशु आदि से मृत्यु हो जाना प्रमादमरण है। उतना अन्य चिन्तकों द्वारा नहीं हुआ है। संलेखना के चिन्तन का संबंध किसी प्रकार का लौकिक लाभ नहीं। उसका लक्ष्य पार्थिव अनिच्छित और प्रमाद मरण में यही अन्तर है कि प्रमाद में मृत्यु अकस्मात् होती है। समृद्धि या सांसारिक सिद्धि भी नहीं है, अपितु जीवन दर्शन है। संलेखना जीवन के अंतिम क्षणों में की जाती है, पर आत्मघात ४. इच्छितमरण : क्रोध आदि के कारण मरने की इच्छा से किसी भी समय किया जा सकता है। जाज्वल्यमान अग्नि में प्रवेश करना, पानी में डूब जाना, पर्वत से गिरना, तीव्र विष का भक्षण करना, शस्त्र से आघात करना आदि बौद्ध परम्परा में से मृत्यु को वरण करना।१३८ इस इच्छितमरण का वैदिक ग्रन्थों में जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा में समाधिमरण के संबंध विधान नहीं है। स्मृति ग्रन्थों में इस प्रकार मृत्यु को वरण करने में विशेष चिन्तन नहीं किया है। उन्होंने इस प्रकार के मरण को वाले को अनुचित माना है। उसका श्राद्ध नहीं करना चाहिए।१३९ 4 एक प्रकार से अनुचित ही माना है। बौद्ध साहित्य का पर्यवेक्षण । उनके लिए अश्रुपात और दाहादि कर्म भी न करें।१४० करने पर कुछ ऐसे सन्दर्भ भी प्राप्त होते हैं, जिसमें इच्छापूर्ण मृत्यु को वरण करने वाले साधक की मृत्यु का समर्थन भी किया गया विधिमरण-जिसका शास्त्रों ने अनुमोदन किया है। यह वह DD है। सीठ, सप्पदास, गोधिक, भिक्षु वक्कलि१३२ कुलपुत्र और भिक्षु मरण है जो इच्छापूर्वक अग्निप्रवेश, जलप्रवेश आदि से होता है। छन्न१३३ ये असाध्य रोग से पीड़ित थे। उन्होंने आत्महत्याएँ कीं।। गौतम धर्मशास्त्र में मरण की आठ विधियां १४१ प्रतिपादित जब तथागत बुद्ध को उनकी आत्महत्या का परिज्ञान हुआ तो उन्होंने कहा-वे दोनों निर्दोष हैं। उन दोनों भिक्षुओं ने आत्महत्या १. प्रायः महाप्रस्थान१४२ : महायात्रा कर प्राण विसर्जन करके परिनिर्वाण प्राप्त किया है। करना। आज भी जापानी बौद्धों में "हाराकीरी" (स्वेच्छा से शस्त्र द्वारा २. अनाशक१४३ : अन्नजल का त्याग कर प्राण त्यागना। आत्महत्या) की प्रथा प्रचलित है, जिसके द्वारा मृत्यु को वरण किया जाता है, पर वह समाधिमरण से पृथक है। बौद्ध परम्परा में शस्त्र के ३. शस्त्राघात : शस्त्र से प्राण त्याग करना। द्वारा तत्काल मृत्यु को वरण करना अच्छा माना गया है। जैन ४. अग्निप्रवेश : अग्नि में गिरकर प्राणों का परित्याग करना। मनीषियों ने शस्त्र के द्वारा मृत्यु को वरण करना सर्वथा अनुचित ५. विषभक्षण : विषसेवन से प्राणों का त्याग। माना है क्योंकि उसमें मरण की अभिलाषा विद्यमान है। यदि मरण की अभिलाषा न हो तो शस्त्र के द्वारा मरने की आतुरता नहीं होती। ६. जल प्रवेश : जल में प्रवेश कर प्राण त्याग। वैदिक परम्परा में ७. उबन्धन : गले में रस्सी आदि से फाँसी लगाकर प्राण वैदिक परम्परा के साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि उन्होंने आत्महत्या को महापाप माना है। पाराशर स्मृति ८. प्रपतन : पहाड़, वृक्ष प्रभृति से गिरकर प्राण त्याग। 0 - त्याग। 3.0- लय De Dayana MEducatibrointerdation 200% A chc s hraj 56.5.000003 5500ROR
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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