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________________ 2006ohtop 2060 { संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला ६४१ नियम धर्म के रूप में प्रतिपादन किया है। आचार्य समन्तभद्र, जिस संलेखना में प्रीति का अभाव है, वह संलेखना सम्यक् पूज्यपाद, आचार्य अकलंक, विद्यानन्दी, आचार्य सोमदेव, संलेखना नहीं है। जब कभी मृत्यु पीछा करती है, उस समय अमितगति, स्वामि कार्तिकय प्रभृति अनेक आचार्यों ने आचार्य सामान्य प्राणी की स्थिति अत्यन्त कातर होती है, जैसे शिकारी उमास्वाति के कथन का समर्थन किया है। इस सभी आचार्यों ने एक द्वारा पीछा करने पर हरिणी घबरा जाती है, इसके विपरीत वीर स्वर से इस सत्य तथ्य को स्वीकार किया है कि शिक्षाव्रतों में योद्धा पीछा करने वाले योद्धाओं से घबराता नहीं, आगे बढ़कर संलेखना को नहीं गिनना चाहिए क्योंकि शिक्षाव्रतों में अभ्यास उनसे जूझता है, वह जैसे-तैसे जीवन जीना पसन्द नहीं करता, किया जाता है। जबकि संलेखना मृत्यु का समय उपस्थित होने । किन्तु दुर्गुणों को नष्ट कर जीवन जीना चाहता है। एक क्षण भी पर स्वीकार की जाती है, उस समय अभ्यास के लिए अवकाश ही जीऊँ, किन्तु प्रकाश करते हुए जीऊँ-यही उसके अन्तहृदय की कहाँ है? यदि द्वादश व्रतों में संलेखना को गिनेंगे तो फिर एकादश । आवाज होती है। जो साधक जीवन के रहस्य को नहीं पहचानता है प्रतिमाओं को धारण करने का अवसर ही कहाँ रहेगा, इसलिए और न मृत्यु के रहस्य को ही पहचानता है, उसका निस्तेज जीवन उमास्वाति का मानना उचित है। | एक प्रकार से व्यक्तित्व का मरण ही है।८४ । श्वेताम्बर जैन आगम साहित्य और आगमेतर साहित्य में कहीं संलेखना के साथ मारणांतिक विशेषण प्रयुक्त होता है। इससे पर भी संलेखना को द्वादश व्रतों में नहीं गिना है। इसलिए अन्य तपःकर्म से संलेखना का पार्थक्य और वैशिष्ट्य परिज्ञात समाधिमरण श्रमण के लिए और संलेखना गृहस्थ के लिए है। यह होता है। कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि आगम साहित्य में अनेक श्रमण काय संलखना को बाह्य संलेखना कहते हैं और कषाय श्रमणियों के द्वारा संलेखना ग्रहण करने के प्रमाण समुपलब्ध संलेखना को आभ्यन्तर संलेखना। बाह्य संलेखना में आभ्यन्तर होते हैं। कषायों को पुष्ट करने वाले कारणों को वह शनैः-शनैः कृश करता संलेखना की व्याख्या है। इस प्रकार संलेखना में कषाय क्षीण होने से तन क्षीण होने पर आचार्य अभयदेव ने “स्थानांगवृत्ति" में७३ संलेखना की । भी मन में अपूर्व आनंद रहता है। परिभाषा करते हुए लिखा है-जिस क्रिया के द्वारा शरीर एवं संलेखना में शरीर और कषाय को साधक इतना कृश कर कषाय को दुर्बल और कृश किया जाता है, वह संलेखना है। लेता है, जिससे उसके अन्तर्मानस में किसी भी प्रकार की कामना "ज्ञातासूत्र" की वृत्ति७४ में भी इसी अर्थ को स्वीकार किया है। नहीं होती। उसके अनशन में पूर्ण रूप से स्थैर्य आ जाता है। "प्रवचनसारोद्धार" में७५ शास्त्र में प्रसिद्ध चरम अनशन की विधि अनशन से शरीर क्षीण हो सकता है, पर आयुकर्म क्षीण न हो और को संलेखना कहा है।" निशीथचूर्णि व अन्य स्थलों पर संलेखना का वह सबल हो तो अनशन दीर्घकाल तक चलता है, जैसे दीपक में अर्थ छीलना-कुश करना किया है।७६ शरीर को कश करना तेल और बाती का एक साथ ही क्षय होने से दीपक बुझता है वैसे द्रव्य-संलेखना है और कषाय को कृश करना भाव-संलेखना है। ही आयुष्यकर्म और देह एक साथ क्षय होने से अनशन पूर्ण होता है। संलेखना यह “सत्" और "लेखना" इन दोनों के संयोग से । बना है। सत् का अर्थ है सम्यक् और "लेखना" का अर्थ है कश संलेखना कब करनी चाहिए करना। सम्यक् प्रकार से कृश करना। जैन दृष्टि से काय और आचार्य समन्तभद्र८५ ने लिखा है प्रतीकार रहित असाध्य दशा कषाय को कर्मबन्धन का मूल कारण माना है, इसीलिए उसे कृश । को प्राप्त हुए उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा व रुग्ण स्थिति में या अन्य करना ही संलेखना है। आचार्य पूज्यपाद ने७७ और आचार्य किसी कारण के उपस्थित होने पर साधक संलेखना करता है। श्रुतसागर ने७८ काय व कषाय को कुश करने पर बल दिया। श्री मूलाराधना में८६ संलेखना के अधिकारी का वर्णन करते हुए चामुण्डराय ने “चारित्रसार" में लिखा है-बाहरी शरीर का और सात मुख्य कारण दिए हैंभीतरी कषायों का क्रमशः उनके कारणों को घटाते हुए सम्यक् प्रकार से क्षीण करना संलेखना है।७९ १. दुश्चिकित्स्यव्याधि : संयम को परित्याग किये बिना जिस व्याधि का उपचार करना संभव नहीं हो, ऐसी स्थिति पूर्व पृष्ठों में हमने मरण के दो भेद बताये हैं-नित्यमरण और समुत्पन्न होने पर। तद्भवमरण। तद्भवमरण को सुधारने के लिए संलेखना का वर्णन है। आचार्य उमास्वाति ने लिखा-मृत्यु काल आने पर साधक को वृद्धावस्था : जो श्रमण जीवन की साधना करने में प्रीतिपूर्वक संलेखना धारण करनी चाहिए।८० आचार्य पूज्यपाद,८१ बाधक हो। आचार्य अकलंक८२ और आचार्य श्रुतसागर८३ ने मारणांतिकी ३. मानव, देव और तिर्यंच संबंधी कठिन उपसर्ग उपस्थित होने संलेखना जोषिता" में जोषिता का अर्थ "प्रीतिपूर्वक" किया है। पर। HGAWON
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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