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________________ sáng da ban ngao as soon a vang bac 2000.A.S । संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला सकाममरण के पंडितमरणं और बालपंडितमरणं-ये दो भेद ही निरुद्ध रहता है, एतदर्थ उसके भक्तप्रत्याख्यान को अनिर्हारी भी किये हैं।५० पंडितमरण और बालपंडितमरण-इन दोनों में मुख्य भेद कहा गया है।६१ निरुद्ध के जनजात और अनअजात६२ ये दो पात्र का है। विषयविरक्त संयमी जीवों का मरण पंडितमरण है और प्रकार हैं। श्रावक का मरण बालपंडितमरण है। बालपंडितमरण का भी निरुद्धतर अन्तर्भाव पंडितमरण के अन्तर्गत ही किया गया है क्योंकि दोनों प्रकार ही के मरण में साधक समाधिपूर्वक प्राणों का परित्याग जहरीले सर्प के काट खाने पर, अग्नि आदि का प्रकोप होने करता है। पर तथा ऐसे मृत्यु के अन्य तात्कालिक कारण उपस्थित होने पर उसी क्षण जो भक्तप्रत्याख्यान किया जाता है, वह निरुद्धतर है।६३ स्थानांग में५१ प्रशस्त मरण के पादपोपगमन और भक्त अथवा ऐसा कोई कारण उपस्थित हो जाय जिससे शारीरिक शक्ति प्रत्याख्यान ये दो मरण बताये हैं। भगवती में५२ भी आर्य स्कन्धक एकदम क्षीण हो जाए तो उसका अनशन निरुद्धतर कहलाता है। के प्रसंग में पंडितमरण के दो प्रकार बताये हैं। उत्तराध्ययन की यह अनिहारी होता है।६४ । प्राकृत टीका में५३ पंडितमरण के तीन प्रकार और पांच भेद बताये हैं-भक्तपरिज्ञामरण, इंगिणीमरण और पादपोपगमनमरण, छद्मस्थ- परम् निरुद्ध मरण और केवलीमरण। सर्पदंश या अन्य कारणों से जब वाणी अवरुद्ध हो जाती है, भक्तप्रत्याख्यान और इंगिणीमरण में यह अन्तर है कि उस स्थिति में भक्तप्रत्याख्यान को परम् निरुद्ध६५ कहा है। भक्तप्रत्याख्यान में साधक स्वयं अपनी शुश्रूषा करता है और दूसरों आचार्य शिवकोटि द्वारा प्रतिपादित भक्तप्रत्याख्यान के निरुद्ध से भी करवाता है। वह त्रिविध आहार का भी त्याग करता है और और परम् निरुद्ध की तुलना औपपातिक में आए हुए पादपोपगमन चतुर्विध आहार का भी त्याग करता है। अपनी इच्छा से जहाँ भी और भक्तप्रत्याख्यान के व्याघात सहित से की जा सकती है। जाना चाहे जा सकता है। किन्तु इंगिणीमरण में चतुर्विध आहार का औपपातिकवृत्ति में व्याघात का अर्थ किया है-सिंह, दावानल प्रभृति त्याग होता है, वह नियत प्रदेश में ही इधर उधर जा सकता है, व्याघात उपस्थित होने पर किए जाने वाला अनशन।६६ औपपातिक उसके बाहर नहीं जा सकता। वह दूसरों से शुश्रूषा भी नहीं करवा की दृष्टि से पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान ये दोनों अनशन DS.SE सकता है। व्याघात सहित और व्याघात रहित दोनों ही स्थितियों में होते हैं। 800 शान्त्याचार्य ने५४ निहारी और अनिहारी ये दो भेद । सूत्रकृतांग की दृष्टि से शारीरिक बाधा उत्पन्न हो या न हो तब भी पादपोपगमन के बताये हैं, किन्तु स्थानांग में५५ भक्तप्रत्याख्यान के । अनशन करने का विधान है। भी दो भेद किये हैं। प्रकारान्तर से पांडितमरण के सागारी संथारा और सामान्य आचार्य शिवकोटि५६ ने भक्तप्रत्याख्यान के सविचार और संथारा ये दो प्रकार किए जा सकते हैं। विशेष आपत्ति समुपस्थित P ascal अविचार दो भेद माने हैं। जिस श्रमण के मन में उत्साह है, तन में होने पर जो संथारा ग्रहण किया जाता है, वह सागारी संथारा है। बल है, उस श्रमण के भक्तप्रत्याख्यान को सविचार५७ कहा जाता | वह संथारा मृत्यु पर्यन्त के लिए नहीं होता, जिस परिस्थिति के है। आचार्य ने इस संबंध में चालीस (४०) प्रकरणों के द्वारा कारण संथारा किया जाता है वह परिस्थिति यदि समाप्त हो जाती विस्तार से विश्लेषण किया है। मृत्यु की आकस्मिक संभावना होने | है, आपत्ति के बादल छंट जाते हैं तो उस व्रत की मर्यादा भी पूर्ण पर जो साधक भक्तप्रत्याख्यान करता है, वह अविचार भक्त | हो जाती है। अन्तकृद्दशांग सूत्र में वर्णन है। भगवान् महावीर प्रत्याख्यान५८ है! अविचार भक्त प्रत्याख्यान के (१) निरुद्ध (२) राजगृह नगर के बाहर पधारे। श्रावक सुदर्शन उनके दर्शन हेतु निरुद्धतर और (३) परम् निरुद्ध ये तीन प्रकार हैं। प्रस्थित हुआ। अर्जुन मालाकार, जो यक्ष से आविष्ट था, वह मुद्गर घुमाता हुआ श्रेष्ठी सुदर्शन की ओर लपका। उस समय सुदर्शन श्रेष्ठी ने सागारी संथारा किया और उस कष्ट से मुक्त होने पर जिस श्रमण के शरीर में व्याधि हो और वह आतंक से पीड़ित उसने पुनः अपनी सम्पूर्ण क्रियाएं कीं। यह सामान्य संथारा है। इसमें हो, जिसके पैरों की शक्ति क्षीण हो चुकी हो, दूसरे गण में जाने में आगार रहता है।६७ असमर्थ हो, उस श्रमण का भक्तप्रत्याख्यान निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान कहलाता है।५९ जब तक उसके शरीर में शक्ति का संथारा पोरसी संचार हो, वह स्वयं अपना कार्य करने में सक्षम हो वहाँ तक वह जैन परम्परा में सोते समय जब मानव की चेतना शक्ति धुंधली अपना कार्य स्वयं करे और जब वह असमर्थ हो जाये तब अन्य पड़ जाती है, शरीर निश्चेष्ट हो जाता है, वह एक प्रकार से श्रमण उसकी शुश्रूषा करें।६० पैरों का सामर्थ्य क्षीण हो जाने से । अल्पकालीन मृत्यु ही है। उस समय साधक अपनी रक्षा का किंचित् 6000 दूसरे गण में जाने में असमर्थ होने के कारण श्रमण अपने गण में मात्र भी प्रयास नहीं कर सकता, अतः प्रतिदिन रात्रि में सोते समय निरुद्ध हलण CO-CA रायण्णायमण्यम RATRoselp0000000 DSDOS SOD.SODDED.
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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