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________________ जन-मंगल धर्म के चार चरण इसलिए आचार्य ने शिकारी की मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हुए कहा है-जिसे शिकार का व्यसन लग जाता है वह मानव प्राणी-वध करने में दया को तिलांजलि देकर हृदय को कठोर बना देता है। वह अपने पुत्र के प्रति भी दया नहीं रख पाता। शिकार के व्यसन ने अनेकों के जीवन को कष्टमय बनाया है। शिकारी एक ही पशु का वध नहीं करता, वह अहंकार के वशीभूत होकर अनेकों जीवों को दनादन मार देता है। इसीलिए आचार्य वसुनन्दी ने कहा- मधु, मद्य, मांस का दीर्घकाल तक सेवन करने वाला जितने महान् पाप का संचय करता है उतने सभी पापों को शिकारी एक दिन में शिकार खेलकर संचित कर लेता है। (६) चोरी शिकार की तरह चोरी भी सप्त व्यसनों में एक व्यसन है। चोरी का धन कच्चे पारे को खाने के सदृश है। जैसे कच्चा पारा खाने पर शरीर में से फूट निकलता है, वैसे ही चोरी का धन भी नहीं रहता। जो व्यक्ति चोरी करता है वह अपने जीवन को तो जोखिम में डालता ही है साथ ही वह अपने परिवार को भी खतरे में डाल देता है। चोरी करने वाला धन तो प्राप्त कर लेता है किन्तु उसका शांति, सम्मान और सन्तोष नष्ट हो जाता है। चोरी करने वाले के मन में अशांति की ज्वालाएं धधकती रहती हैं। उसका मन सदा भय से आक्रान्त रहता है। उसका आत्म-सम्मान नष्ट हो जाता है, उसमें आत्मग्लानि पनपने लगती है। चोरी का प्रारम्भ छोटी वस्तुओं से होता है और वह आदत धीरे-धीरे पनपने लगती है। जैसे साँप का जहर धीरे-धीरे सारे शरीर में व्याप्त हो जाता है वैसे ही चोरी का व्यसन-रूपी जहर भी जीवन में परिव्याप्त होने लगता है। इसलिए सभी धर्म-प्रवर्तकों ने चोरी को त्याज्य माना है। वे उसे असामाजिक कृत्य, राष्ट्रीय अपराध और मानवता के विरुद्ध उपक्रम मानते हैं। भगवान महावीर ने कहा- बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करो। यहाँ तक कि दाँत कुरेदने के लिए एक तिनका भी न लो। कोई भी चीज आज्ञा लेकर ग्रहण करनी चाहिए। वैदिक धर्म में भी चोरी का स्पष्ट निषेध है। किसी की भी कोई चीज न ग्रहण करे महात्मा ईसा ने भी कहा- 'तुम्हें चोरी नहि करनी चाहिए।' (७) परस्त्री-सेवन भारत के तत्त्वदर्शियों ने कामवासना पर नियन्त्रण करने हेतु अत्यधिक बल दिया है। कामवासना ऐसी प्यास है, जो कभी भी बुझ नहीं सकती। ज्यों-ज्यों भोग की अभिवृद्धि होती है त्यों-त्यों वह ६२९ ज्वाला भड़कती जाती है और एक दिन मानव की सम्पूर्ण सुख-शान्ति उस ज्वाला में भस्म हो जाती है। गृहस्थ साधकों के लिए कामवासना का पूर्ण रूप से परित्याग करना बहुत ही कठिन है, क्योंकि जो महान् वीर हैं, मदोन्मत्त गजराज को परास्त करने में समर्थ हैं, सिंह को मारने में सक्षम हैं, वे भी कामवासना का दमन नहीं कर पाते। एतदर्थ ही अनियन्त्रित कामवासनों को नियन्त्रित करके समाज में सुव्यवस्था स्थापित करने हेतु मनीषियों ने विवाह का विधान किया। विवाह समाज की नैतिक शान्ति, पारिवारिक प्रेम और प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने वाला एक उपाय है। गृहस्थ के लिए विधान है कि वह अपनी विधिवत् विवाहित पत्नी में सन्तोष करके शेष सभी परस्त्री आदि के साथ मैथुन विधि का परित्याग करे। विराट् रूप में फैली हुई वासनाओं को जिसके साथ विधिपूर्वक पाणिग्रहण हुआ है उसमें वह केन्द्रित करे। इस प्रकार असीम वासना को प्रस्तुत व्रत के द्वारा अत्यन्त सीमित करे। परस्त्री से तात्पर्य अपनी धर्मपत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों से है। चाहे थोड़े समय के लिए किसी को रखा जाय या उपपत्नी के रूप में, किसी की परित्यक्ता, व्यभिचारिणी, वेश्या, दासी या किसी की पत्नी अथवा कन्या- ये सभी स्त्रियों परस्त्रियों है। उनके साथ उपभोग करना अथवा वासना की दृष्टि से देखना, क्रीड़ा करना, प्रेम पत्र लिखना या अपने चंगुल में फंसाने के लिए विभिन्न प्रकार के उपहार देना, उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करना, उसकी इच्छा के विपरीत काम-क्रीड़ा करना, वह बलात्कार है और इसकी इच्छा से करना परस्त्री-सेवन है। जनतन्त्रवादी समाज के लिए व्यसनमुक्ति एक ऐसी विशिष्ट आचार पद्धति है जिसके परिपालन से गृहस्थ अपना सदाचारमय जीवन व्यतीत कर सकता है और राष्ट्रीय कार्यों में भी सक्रिय योगदान दे सकता है। दर्शन के दिव्य आलोक में ज्ञान के द्वारा चारित्र की सुदृढ़ परम्परा स्थापित कर सकता है। यह ऐसी एक आचार संहिता है जो केवल जैन गृहस्थों के लिए ही नहीं किन्तु मानव मात्र के लिए उपयोगी है। वह नागरिक जीवन को समृद्ध और सुखी बना सकती है तथा निःस्वार्थ कर्तव्य भावना से प्रेरित होकर वह राष्ट्र में अनुपम बल और ओज का संचार कर सकती है, सम्पूर्ण मानव समाज में सुख-शान्ति और निर्भयता भर सकती है। अतः व्यसनमुक्त जीवन सभी दृष्टियों से उपयोगी और उपादेय है। मनुष्य चाहे न बदले पर उसके विचार बदलते हैं। तभी तो एक ही झटके में महाभोगी महायोगी बन जाता है। - उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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