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________________ 36020DS SanD.. Do 500Rago जन-मंगल धर्म के चार चरण ६१७ 17 मॉसाहार या व्याधियों का आगार ! 10000-30 -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. पौष्टिकता की एक सशक्त आन्ति : संगठन (डब्ल्यू. एच. हो.) के बुलेटिन की चर्चा करते हुए डॉ. टुण्ड्रा प्रदेश हिमाच्छादित ऐसा भूभाग है, जहाँ वनस्पति का नेमीचन्द ने उल्लेख किया है कि-"माँसाहार से मनुष्य के जिस्म नामो-निशान भी नहीं। सर्वत्र श्वेत ही श्वेत रंग व्याप्त रहता है। नहीं। मनव पती मवेत ग व्याप्त रहता है। (शरीर) में १६० बीमारियाँ दाखिल हो सकती है, अड्डा जमा हरित वर्ण के दर्शन भी नहीं होते हैं। प्रकृति ने अपनी वनस्पति सकती हैं। ख्याल रहे बीमारियों की यह संख्या कम नहीं है। इनमें शून्यता से वहाँ की एस्कीमो जाति को माँसाहारी बना दिया है। माँस स कुछ तो ऐसी हैं जो जानलेवा है और कुछ लाइलाज है।"१ भक्षण ही उनकी जीवनी शक्ति का एक मात्र आधार है। एस्किमो वनस्पात जगत् प्राणाजगत् क रागा का कोई प्रभाव ग्रहण नहीं लोगों की आयु मात्र तीस वर्ष तक सीमित रहती है। है न एक करता अतः शाकाहार सर्वथा शुद्ध और निरापद होता है। किन्त चौंका देने वाला तथ्य! किन्तु इससे भी अधिक चौंकाने वाली तो पशु को अपने रोग भी होते हैं, वह अन्य स्रोतों से भी रोग ग्रहण यह भ्रांति है कि सामिष भोजन निरामिश की अपेक्षा कहीं अधिक कर लेता है और अपने इन रोगों को अपने माँस द्वारा उन मनुष्यों पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक है। सचमुच यह एक आधारहीन धारणा के शरीर में भी प्रविष्ट करा देता है, जो उसका आहार करते हैं। है। वस्तुस्थिति तो यह है कि माँसाहार आहार के समस्त प्रयोजनों माँसाहार इस प्रकार संकटपूर्ण बना रहता है। माँसाहार जनित रोग को पूर्ण ही नहीं कर पाता। आहार से शरीर की आवश्यकताएँ पूर्ण | "जूनीसिस" कहलाते हैं। ये जूनोसिस चार प्रकार के होते हैंहोनी चाहिए। इसमें वे सारे तत्व होने चाहिए जो मानवदेह को (१) डायरेक्ट जूनोसिस वे रोग है जो रुग्ण पशु के माँस । वर्धमान बनाने में, शक्ति प्रदान में, रोग प्रतिरोध में, दीर्घायु में, भक्षण से सीधे ही उत्पन्न हो जाते हैं (२) साइक्लो जूनोसिस में रोग स्वस्थ रखने में अपेक्षित समझे जाते हैं। माँसाहार में अनेक तत्व तो इस प्रकार सीधे अपने स्रोत से मानवदेह तक नहीं पहुँचता। किसी शून्यवत् हैं, जैसे कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, विटामिन आदि। यह जीव जन्तु को रोग हो, उसका माँस अन्य पशु खाए और इस अन्य आहार ऊर्जा का भी कोई संबल स्रोत नहीं है। मूंगफली जैसा एक पशु के माँस का आहार जब मनुष्य करें तो यह पहले वाले जीव साधारण शाकाहारी पदार्थ जितनी मात्र से ५७० कैलोरी ऊर्जा देता जन्तु के रोग से ग्रस्त हो जाता है। टेपवार्म का रोग इसी प्रकार का है, उतनी ही मात्रा में माँस और अण्डा केवल ११४ और १७३ | होता है। यह साइक्लो या चक्रिक या आवर्ती इसी कारण कहा गया कैलोरी ऊर्जा दे पाता है। भला फिर इसे क्यों कर पौष्टिक आहार है। (३) रीढ़ विहीन जन्तुओं के सेवन से मेरा जनोसिस रोग होते माना गया। हैं, यथा प्लेग (४) जूनोसिस का चौथा प्रकार “सेपरो" होता है। वस्तुतः केवल माँसाहार पर निर्भर रहकर कोई व्यक्ति स्वस्थ इसमें पहले कोई रुग्ण जीव जन्तु अपने रोग के कीटाणु पेड़ पौधों एवं निरोग जीवन नहीं बिता सकता। अनेक महत्वपूर्ण और पर मिट्टी अथवा जल पर फैला देते हैं। अन्य पशु उनसे रोगग्रस्त अनिवार्य तत्वों के अभाव में वह अनेक रोगों से घिर जायेगा और हो जाते हैं। मनुष्य इन पशुओं से कीटाणु ग्रहण कर रुग्ण हो जाते उसकी बढ़ती हुई कार्यक्षमता सीमित रह जायेगी। हैं। लारवा, माइग्रन्स आदि रोग इसी प्रकार के होते हैं। रोगियों के एक व्यापक सर्वेक्षण से यह तथ्य प्रकाश में आया माँसाहार रोगों का जनक : है कि संक्रामक एवं घातक रोग शाकाहारियों की अपेक्षा - माँसाहारी देशों में ब्रिटेन का प्रमुख स्थान है। अनुभवों और माँसाहारियों में बहुलता के साथ मिलते हैं। एक और अन्तर इन दो दुष्परिणामों के आधार पर उस देश का बी. बी. सी. टेलीविजन प्रकार के रोगियों में यह पाया गया कि माँसाहारी रोगियों के ये स्वयं यह प्रचारित करने लगा है कि मानव जाति को माँसाहार रोग शाकाहारियों की अपेक्षा अधिक गम्भीर और तीव्र होते हैं। जनित घातक रोगों से सावधान रहना चाहिए। ये घातक रोग शाकाहारी अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ प्रतीत होते हैं। वे शान्त और मनुष्य को उस समय से ही ग्रस्त करने लग जाते हैं, जब वह मननशील भी होते हैं। जिन देशों में माँसाहार सामान्य और गर्भस्थ होता है। अमेरिका का एक सर्वेक्षण यह सूचना देता है कि | बहुप्रचलित है, वहाँ हृदयाघात, कैंसर, रक्तचाप, मोटापा, गुर्दे के वहाँ ४७ हजार बच्चे इस कारण जन्मजात रोगी होते हैं कि उनके रोग, कब्ज, अनेक प्रकार के संक्रामक रोग, जिगर के रोग, पथरी अभिभावक, विशेषतः माता माँसाहारी होती है। माँ का रक्त इस आदि घातक रोग अत्यधिक हैं। असंख्यजन इन रोगों से बुरी तरह आहार के कारण दूषित और विकृत हो जाता है और इस रक्त से । ग्रस्त मिलते हैं। भारत, जापान आदि देशों में इन रोगों का पोषण पाकर गर्भस्थ शिशु में रोगों का बीजपवन हो जाता है। ये व्यापकत्व अपेक्षाकृत कम है। यहाँ माँसाहार की प्रवृत्ति भी इतनी बच्चे आयु पाकर भी पूर्ण स्वस्थ नहीं रह पाते। विश्व स्वास्थ्य अधिक नहीं है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि इन घातक रोगों R-OSOOPARDAS3008 EDERAND togaigarpan 500ROSO900
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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