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________________ dsc0600301220 Parina-SO9000000 680596०00939009005902060888 | जन-मंगल धर्म के चार चरण ६०५ 162600 एवं मन की प्रकृति एवं दोष स्थिति भिन्न-भिन्न होती है। यही कारण स्वभावतः गुरु। जो द्रव्य पचने में भारी होते हैं या जो द्रव्य देर से है कि सभी मनुष्यों के लिए एक जैसा आहार सदैव अनुकूल नहीं पचते हैं वे स्वभावतः गुरु या भारी होते हैं। जैसे उड़द कहू, आलू रहता है। कुछ लोगों को मधुमेह, ब्लड प्रेशर (उच्च या हीन । आदि। ये द्रव्य कठिनता से देर में पचते हैं। २. मात्रा गुरु। कुछ रक्तचाप) मानसिक या बौद्धिक तनाव, अम्लपित्त (एसिडिटी), गैस द्रव्य स्वभावतः गुरु तो नहीं होते, किन्तु यदि अधिक मात्रा में उन्हें की बीमारी, कब्ज की शिकायत, अनिद्रा आदि कुछ ऐसी बीमारियाँ लिया जाता है तो उनका पचना मुश्किल होता है। जैसे कोई व्यक्ति हैं जो सीधे उसके आहार से प्रभावित होती हैं। हमारे द्वारा सेवन केवल एक पाव दूध ही पचा सकता है। वह यदि आधा किलो या किया गया आहार सीधे-सीधे हमारी जठराग्नि, शरीर के एक किलो दूध पीये तो वह उसे पचा नहीं पाएगा और उसे अजीर्ण आभ्यन्तरिक अवयवों और उनकी क्रियाओं को प्रभावित करता है, या अतिसार हो जायगा। कई लोगों को एक छटाँक घी पचना भी कभी अनुकूल रूप से और कभी प्रतिकूल रूप से। जब अनुकूल रूप कठिन होता है। घी, दूध, जूस आदि मात्रा गुरू होते हैं। ३. संस्कार से प्रभावित करता है तो शरीर स्वस्थ, पृष्ट और विकास की ओर। गुरु-जो द्रव्य पकाने के बाद भारी गुण वाले या कठिनता से पचने अग्रसर रहता है। इसके विपरीत जब प्रतिकूल रूप से प्रभावित वाले होते हैं वे संस्कार गुरु कहलाते हैं। जैसे-खीर, पुड़ी, पुआ, EBRUT करता है तो अनेक प्रकार की बीमारियाँ शरीर में उत्पन्न होकर मिष्ठान्न आदि पकवान। जिन द्रव्यों से इन्हें बनाया या पकाया जाता शरीर को अस्वस्थ कर देती हैं। है वे सामान्यतः गुरु प्रकृति के नहीं होते हैं, किन्तु पकाने के बाद उनमें गुरुता आती है। आहार द्रव्यों को बनाना या पकाना ही प्रकृति के नियमानुसार उपयुक्त आहार समय पर लेना चाहिये। संस्कार कहलाता है। अतः संस्कार के परिणाम स्वरूप जो आहार सामान्यतः दिन में दो बार ही उचित प्रमाण में आहार लेना चाहिये। द्रव्य बनकर तैयार होते हैं वे संस्कारतः गुरु होते हैं। असमय या बार-बार लिया गया आहार पाचनतंत्र और उससे सम्बन्धित अवयवों की प्राकृत क्रिया को प्रभावित करता है। अधिक विहार-इसी प्रकार मनुष्य के द्वारा दैनिक क्रिया के रूप में जो मात्रा में लिया गया आहार अजीर्ण तथा पेट सम्बन्धी अन्य कार्य या व्यवहार किया जाता है वह विहार कहलाता है। उसे भी बीमारियों का कारण बनता है। जिस ऋतु में, जिस अवस्था में जिन आयुर्वेद में रोग या आरोग्य का कारण माना गया है। इस विषय में खाद्य पदार्थों के सेवन से शरीर की पाचन क्रिया प्रतिकूल रूप से अष्टांग हृदय में आचार्य वाग्भट ने स्पष्ट रूप से कहा हैप्रभावित या बाधित न हो, खाया पदार्थ शीघ्र पच जाय, अजीर्ण, कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिमात्रकः। अफारा अतिसार खट्टी डकार आदि विकार उत्पन्न नहीं हों वही सम्यग् योगश्च विज्ञेयः रोगारोग्यैककारणम्॥ खाद्य या आहार ग्रहण करना चाहिये। भोजन के समय का ध्यान । अर्थात् काल (समय) अर्थ (इन्द्रिय गम्य समस्त पदार्थ) तथा र रखना भी आवश्यक है। दिन में दो बार ही भोजन करना चाहिये कर्म (मनुष्य द्वारा किया जाने वाला समस्त क्रिया व्यापार) इनके और दो भोजन के बीच का अन्तराल ४ से ६ घण्टे से कम नहीं । हीन योग, मिथ्या योग एवं अतियोग को रोग तथा इनके सम्यक् होना चाहिये। जो व्यक्ति दिन में कई बार या बार-बार खाता है वह योग को आरोग्य का कारण समझना चाहिये। बीमारी स्वयं बुलाता है। - काल से अभिप्राय दिन और रात्रि तथा ऋतु से है। दिन के R ad लगातार अल्पहार या अनाहार करना स्वास्थ्य के लिए नुकसान तीन भाग हैं-प्रातः, मध्याह्न और सायम्। रात्रि के तीन भाग हैंदायक होता है। रोगग्रस्त होने पर या किसी विशेष स्थिति में प्रथम प्रहर, मध्य प्रहर या मध्य रात्रि और अन्तिम प्रहर। ऋतुएं उपवास या लंघन करना उपयुक्त हो सकता है। विशेष परिस्थितियों तीन या छह होती हैं-शीत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु और वर्षा ऋतु। छः में उसका अपना महत्व एवं उपयोगिता है, किन्तु सर्वत्र, सर्वकाल में ऋतुएँ-वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर, बसन्त और ग्रीष्म। इनका हीन, और लगातार वह उपादेय नहीं है। भोजन काल में जल का भी मिथ्या और अतियोग होना अर्थात् शीतऋतु में अपेक्षित या पर्याप्त Rod अपना अलग महत्व है। भोजन के तुरन्त पहले जल पीना या जल ठंड नहीं होना, ग्रीष्म ऋतु में अपेक्षित या पर्याप्त गरमी नहीं पड़ना, पीकर तुरन्त भोजन करना कृशताकारक है। भोजन के पहले जल । वर्षा ऋतु में पर्याप्त या अपेक्षित वर्षा नहीं होना इन ऋतुओं का जल पीने से अग्निमांद्य होता है, भोजन के बीच-बीच में जल पीने से । हीन योग है। इन ऋतुओं में अपेक्षा से अधिक सरदी, गरमी या जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा भोजन के पश्चात् जल पीने से बरसात होना उन ऋतुओं का अतियोग है। शीत ऋतु में गरमी Res100 स्थूलता और कफ की वृद्धि होती है। होना, ग्रीष्म में सरदी होना, वर्षा में कम या अधिक, आगे-पीछे या भुक्तस्यादौ सलिलं पीतं कायमन्दाग्निदोषकृत्। विषम वर्षा होना, समय पर वर्षा नहीं होना मिथ्या योग है। ऋतुओं में इस प्रकार की विषमता होने से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो मध्येऽग्निदीपनं श्रेष्ठमन्ते स्थौल्यकफप्रदम्॥ जाते हैं। अतः ऋतुओं का विषम या मिथ्या योग रोग का कारण हैं। इसी तरह गुरु आहार के सेवन में भी सावधानी बरतनी । इसके विपरीत इन ऋतुओं का सम्यक् योग रहने पर मनुष्य स्वस्थ चाहिये। गुरु या भारी आहार तीन प्रकार का होता है-१. या निरोग रहते हैं। एपण लवणलण्णपाय RAGG6290.90%ac%800:00:00:00.0000.6000 6004800900 PayPageoporomagDOS02D6.00and.saareriedeoporoJODMOD.CODED SROSO-90000000000000000000000%ABOORato०0.84600200.00 moriandoraborget 0:00:00:00
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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