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________________ SO90055033000 0 000YPDADOPTOPoppyara S003 10.0 9:00.00 जन-मंगल धर्म के चार चरणमा DANA ६०३ हुआ होता है। तामसिक आहार तामस व्यक्तित्व का जनक है जो मांस क्रुद्ध और आतंकित प्राणी का होगा। यदि उसी प्राणी और सात्विक आहार सात्विक व्यक्तित्व का। जिन संस्कृतियों, के मांस को मनुष्य खाएगा तो क्या वह क्रुद्धता और उग्रता से बच जिन धर्मों और जिन समाजों ने मांसाहार को वर्जित करके सकता है। यदि मांसाहारी व्यक्ति के व्यक्तित्व में पशुता और शाकाहार को अपनाया है, वे अधिक सहिष्णु, शांतिप्रिय और । राक्षसीपन की झलक मिलती है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सात्विक रही हैं। जहाँ पर मांसाहार अधिक होगा वहाँ अपेक्षाकृत अधिक हिंसा और वर्तमान विश्व में आज जो इतनी हिंसा, आतंक, अंधाधुंधी, क्रूरता होगी। मांसाहारी व्यक्ति आत्मिक, हार्दिक और मानसिक असहिष्णुता, क्रूरता, हत्याएं, क्रोध, तनाव, उग्रता, छटपटाहट और संवेदना गंवा देता है। उस व्यक्ति से मृदुल, स्नेहिल और कोमल बेचैनी है, यदि इनका मूल कारण खोजेंगे तो ज्ञात होगा कि इसके स्वभाव तथा आचरण की आशा नहीं रखी जा सकती। यह सूक्ष्म बीज मांसाहार में हैं। कोई भी जीव स्वेच्छा से मरना नहीं चाहता। वैज्ञानिक कारण है। जिसकी कोई भी उपेक्षा नहीं कर सकता। सभी में दुर्वार जिजीविषा होती है। मरने से बचने के लिए जीव । इससे विपरीत वर्तमान विश्व में जो भी अव्यवस्था फैली है सबकुछ छोड़कर अपने मारने वाले से दूर भाग जाता है। जिसे उसका समाधान शाकाहार के पास है। मनुष्य ने जो शांति, संतुलन, मारा जाता है उसे बांधकर, बेबस और निरीह बनाकर ही मारा संवेदना और सहिष्णुता गंवा दी है वह शाकाहार के द्वारा पुनः जाता है। जिस समय उसकी गर्दन काटी जाती है उस समय वह लौटाई जा सकती है। मांसाहार से जो भी विकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं चीखता है, चिल्लाता है, रोता है, आहे भरता है, छटपटाता है, उग्र । उनका एकमात्र उपाय और परिहार शाकाहार है। जिस दिन और उत्तेजित होता है, आतंकित और भयभीत होता है, क्रुद्ध । शाकाहार मनुष्य की जीवन शैली बन जाएगा उस दिन वह समस्त होता है। आन्तरिक और बाह्य वैभव से मंडित हो जाएगा। इन्सानियत इन्सान कहलाने वाले हो॥ जिनवाणी का पीना प्याले हो।।टेर॥ मुश्किल में नर तन पाते हो। नहीं होश मोह में लाते हो। जीवन को बनाते काले हो|॥१॥ मोह माया में क्यों फूल रहे?। अपने कर्तव्य को भूल रहे। बन जाते मोह मतवाले हो॥२॥ यह बंगला माल खजाना है। नहीं संग तेरे कुछ आना है। तू इनसे चित्त हटाले हो॥३॥ तेरी नैय्या डगमग डोल रही। बिन धर्म तुम्हारी पोल रही॥ अब नैया पार लगाले हो॥४॥ "मुनि पुष्कर" तुम्हें चेताता है। गया वक्त हाथ नहीं आता है। नर-भव का लाभ उठाले हो॥५॥ -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि (पुष्कर-पीयूष से) BeamAorतिमिलि YOOSSA PRODaseDEO0002DC Go40का00.00 3896800wjala-the
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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