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________________ VOTALGO 16. 0 0 00. 0000.0000.90. ODDOOD 10000000000000 POCOC060 जन-मंगल धर्म के चार चरण ५८३ । पर्यावरण के संदर्भ में जैन दृष्टिकोण RANDONO0 - -डॉ. शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद प्रधान संपादक-"तीर्थंकरवाणी" पिछले दशक से 'पर्यावरण', प्रदूषण शब्द अधिक प्रचलित 'स्थावरजीव' की संज्ञा प्रदान की थी। धवला में कहा है-"स्थावर हुआ। आज विश्व का प्रत्येक देश उसके राजनीतिज्ञ, बौद्धिक, जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, वैज्ञानिक सभी इसकी चर्चा और चिंता व्यक्त कर रहे हैं। अच्छाई । सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है।" सर्वार्थसिद्धि में 20 यह उभरकर आई कि यह आम चर्चा का विषय बन सका। पर, कहा है जिसके उदय से एकेन्द्रियों में उत्पत्ति होती है वह स्थावर अधिकांशतः यह चिन्तन का एक फैशनेबल शब्द भी बनता जा । नाम कर्म है। पंचास्तिकाय मूलाचार में पृथ्वीकाय अप्काय, रहा है। अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय यह कायें जीव सहित हैंप्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्यों होने लगा। यदि हम पृथ्वी की ऐसा निर्देश है। इसे स्पष्ट करते हुए 'धवला' में कहा गया है कि वर्तमान स्थिति को देखें और विचार करें तो स्पष्ट होता है कि । स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जाना जाता है, देखता पृथ्वी का मूल परिवेश ही लोगों में अपने वैयक्तिक हित के लिए। है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है बदल डाला है। प्रकतिक संतलन जो वनस्पति, जीवधारी प्राणियों के । इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा गया है। कारण था उसे असंतुलित कर डाला। जिसके भयंकर विनाशकारी इन एकेन्द्रिय जीवों की प्रयोगात्मक स्थिति को ‘पंचास्तिकाय' परिणाम सामने आये और मानव चिंतित हो उठा। अस्तित्व का आदि ग्रंथों में समझाते हुए लिखा है-“अण्डे में वृद्धि पाने वाले खतरा बढ़ने लगा जिससे वह इस पर्यावरण की रक्षा के लिए प्राणी गर्भ में रहे हुए प्राणी और मूर्छा प्राप्त मनुष्य जैसे हैं-वैसे सोचने लगा। यह प्रश्न व्यक्ति का नहीं पर समग्र विश्व और एकेन्द्रिय जीव जानता है। यह एकेन्द्रियों को चैतन्य का अस्तित्व चराचर के प्राणी मात्र से जुड़ा होने के कारण सबके लिए चिन्ता होने संबंधी दृष्टान्त का कथन है। अण्डे में रहे हुए प्राणी, गर्भ में और चिन्तन का कारण बना। इसीलिए आज इस प्रश्न की चर्चा, रहे हुए और मूर्छा पाये हुए के जीवत्व का, उन्हें बुद्धि पूर्वक उपाय ढूँढ़े जा रहे हैं। व्यापार नहीं देखा जाता तथापि, जिस प्रकार निश्चय किया जाता 'पर्यावरण' शब्द को सामान्य रूप से समझेंगे इतना ही कहा है। उसी प्रकार एकेन्द्रियों के जीवत्व का भी निश्चय किया जाता है, जा सकता है कि पर्यावरण अर्थात् आवरण या रक्षण कवच। आज क्योंकि दोनों में बुद्धिपूर्वक व्यापार का अदर्शन है। इस रक्षाकवच को तोड़ा जा रहा है अतः पूरी पृथ्वी का रक्षण "राजवार्तिककार" ने माना है कि वनस्पति आदि में ज्ञान का डगमगाने लगा है। पृथ्वी ही ऐसा नक्षत्र है जिसमें प्राण और सद्भाव होता है। खान-पान आदि मिलने पर पुष्टि और न मिलने वनस्पति दोनों का स्थान है। प्रकृति से मनुष्य को बुद्धि का विशिष्ट पर मलिनता देखकर उनमें चैतन्य का अनुमान होता है। वरदान मिला है अतः यह अपेक्षा थी कि वह इस सृष्टि का स्याद्वादमंजरी में इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है-"मूंगा रक्षण करेगा। पर, इस बुद्धि का दुरुपयोग करके उसने इस सृष्टि पाषाणादि रूप पृथ्वी सजीव हैं क्योंकि डाभ के अंकुर की तरह पर ही आघात किए। मनुष्येतर सभी प्राणी अपने नैसर्गिक जीवन । पृथ्वी के काटने पर वह फिर से उग आती है। पृथ्वी का जल के अलावा अन्य किसी भी विनाश या संग्रह या मौज शौक के लिए सजीव है, क्योंकि मैंडक की तरह जल का स्वभाव खोदी हुई पृथ्वी अन्य प्राणी या वनस्पति का घात नहीं करते-जबकि मनुष्य ने के समान है। आकाश का जल भी सजीव है, क्योंकि मछली की अपनी पेट की भूख के साथ अपनी पशुवृत्ति के पोषण एवं संग्रह तरह बादल के विकार होने पर वह स्वतः ही उत्पन्न होता है। अग्नि 5 के कारण अनेक प्राणी वध किए। जंगल उजाड़े और अपनी ही भी सजीव है, क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह आहार आदि के मौत को आमंत्रित किया। प्रगति के नाम पर हुए वैज्ञानिक- ग्रहण करने से उसमें वृद्धि होती है। वायु में भी जीव है, क्योंकि गौ प्रौद्योगिक परीक्षण व निर्माण पृथ्वी के पर्यावरण को निरंतर दूषित की तरह वह दूसरे से प्रेरित होकर गमन करती है। वनस्पति में भी कर रहे हैं। इन्हीं तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में हम जैनदृष्टिकोण से जीव है, क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह छेदने से उसमें मलिनता पर्यावरण पर विचार करेंगे। देखी जाती है। कुछ वनस्पतियों में स्त्रियों के पदाघात आदि से जिस तथ्य का स्वीकार आज वैज्ञानिक कर रहे हैं कि वनस्पति विकार होता है इसलिए भी वनस्पति जीव है। अथवा जिन जीवों में में जीव होता है उसका प्रतिपादन और निरूपण जैनागम हजारों चेतना घटती हुई देखी जाती है वे सब सजीव हैं। सर्वज्ञ भगवान ने वर्ष पूर्व कर चुका था। इतना ही नहीं जैनदर्शन ने तो स्थावर पृथ्वी आदि को जीव कहा है। पंचास्तिकायिक जीवों में प्राणों की कल्पना की थी। कल्पना ही नहीं । इस प्रकार इस शास्त्रीय व्याख्या और लक्षण से यह सिद्ध हो परीक्षण से जीव के अस्तित्व को प्रामाणित किया था। इन्हें गया कि पृथ्वी आदि पाँचों प्रकार के स्थावर जीव एकेन्द्रिय हैं और BARB00000 20000000000000200. as- 0 060.COPENarespersonardseonip-06:00.065 DP/06600000000009DODODODO0 20.00
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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