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________________ HOJP00000000000000000यालयाजवणायालाय जन-मंगल धर्म के चार चरण DIDDDE पर्यावरण प्रदूषण के मूल कारण-जैसा कि पहले संकेत किया पालन अणुव्रत और महाव्रत के रूप में निर्धारित किया गया है। जा चुका है कि स्थूल पर्यावरण प्रदूषण के पीछे वैचारिक प्रदूषण क्योंकि तत्त्वदर्शी तीर्थंकरों ने यह अनुभव किया कि यदि अहिंसा मुख्य कारण हुआ करता है और उस वैचारिक प्रदूषण में भी का पालन न किया गया तो कालान्तर में प्रकृति के असंतुलन से संकुचित स्वार्थ, लोभ, विषयवासना और उसकी पूर्ति के लिए उत्पन्न भूमि, जल और वायु का प्रदूषण कभी भी प्रलयंकारी हो साधन एकत्र करने की प्रवृत्ति कारण हुआ करती है। फलस्वरूप सकता है। प्रदूषित विचारों वाला मानव जीवहिंसा, मित्रवृत्ति का नाश, असंतुलित तीव्र औद्योगीकरण, शहरीकरण आदि में प्रवृत्त भगवान् महावीर ने पृथ्वीकाय की हिंसा का निषेध करते B RE होता है। हुए कहा है-'जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढवि सत्थं समारंभेमाणे अण्णेवेणेगरूवे पाणे विहिंसई तं परिण्णाय 2000 जीवहिंसा-प्रकृति ने विविध जीव-जन्तुओं को इस रूप में मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्यं समारंभेज्जा नेवऽण्णेहिं पुढवि-सत्थ उत्पन्न किया कि वे कभी परस्पर शत्रुता के कारण, कभी अपने समारंभावेज्जा नेवण्णे पुढवि-सत्यं समारंभे ते समणुजाणेज्जा।'४ शरीर से निकलने वाली गन्ध के कारण प्रकृति का सन्तुलन बनाये अर्थात् नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त रखते हैं। उदाहरणार्थ, कृषि को हानि पहुँचाने वाले अनेक कीड़ों होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करने वाला व्यक्ति नाना प्रकार को मेढ़क और चूहे आदि समाप्त करते हैं किन्तु उनकी वृद्धि भी के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है। मेधावी पुरुष हिंसा के अधिक हानिकर हो सकती है, इसलिए प्रकृति ने सों को उत्पन्न परिणाम को जानकर स्वयं पृथ्वी शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों कर दिया है, जो चूहों और मेढ़क आदि को आहार बनाकर से उसका समारंभ न करवाये, उसका समारंभ करने वालों का PROOP संतुलन बनाये रखने में अपना योगदान करते हैं। सो की | अनुमोदन भी न करे। आज अनेक प्रकार के खनिज पदार्थों के अधिकता भी भयावह हो सकती है, इसलिए मयूर, चील्ह आदि लिए विशेषकर पत्थर के कोयले के लिए पृथ्वी का जबरदस्त पक्षी प्रकृति ने उत्पन्न किये हैं, जो सर्यों की संख्या को भी नियंत्रित दोहन किया जा रहा है। पत्थर के कोयले के जलने, उसकी धूल, किये रहते हैं। वनों में उत्पन्न घास कई बार महत्त्वपूर्ण औषधियों कार्बनडाईऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड तथा कुछ अन्य और वृक्षों की वृद्धि में बाधक होती है, इसलिए प्रकृति ने हरिण ऑर्गेनिक गैसों के रूप में प्रदूषणकारी पदार्थों की भरमार हो गयी बनाये हैं, जो चरकर बाधक तृणों को समाप्त करते हैं। किन्तु है। यदि पृथ्वीकाय जीवों की हिंसा बन्द कर दी जाये, तो 2000 हरिणों की संख्या यदि अधिक हो जाए, तो वे खेतों की फसलों कोयला तो बचेगा ही, वायु प्रदूषण पर भी नियंत्रण किया जा और तमाम उपयोगी पेड़-पौधों को नष्ट कर सकते हैं, उनके तथा सकेगा। इस प्रकार पृथ्वीकाय की हिंसा केवल पृथ्वीकाय की हिंसा इसी प्रकार अन्य पशुओं के नियमन के लिए प्रकृति ने भेड़िया, ही नहीं है, अपितु उसके साथ वातावरण के संतुलन का भी चीता, तेन्दुआ, बाघ और सिंह जैसे मांसाहारी पशुओं की रचना कारण है। की है। इनमें सर्वाधिक शक्तिशाली सिंहों का उपद्रव पीड़ादायी न हो, इसलिए एक तो उनकी संख्या कम रहती है एवं दूसरे प्रकृति ने ए जीवनमित्र वृक्षों का नाश (वानस्पतिक प्रदूषण)-पर्यावरण के 0 a4 उनका स्वभाव ऐसा बना दिया है कि वे क्षुधित होने पर ही किसी । संरक्षण में वृक्षों का सर्वाधिक महत्त्व है। सामान्य रूप से वृक्ष प्राणी की हिंसा करते हैं, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार जल में मल को मनुष्यों के द्वारा दूषित वायु के रूप में निष्कासित अथवा प्रकृति समाप्त करने के लिए प्रकृति ने छोटी-छोटी मछलियों, केकड़ों, शंख, के भिन्न-भिन्न तत्त्वों के संसर्ग से स्वतः उत्पन्न होने वाली कछुआ आदि जलचरों की रचना की है और उन जलचरों में भी कार्बनडाइऑक्साइड आदि गैसों को आहार के रूप में ग्रहण करते उत्तरोत्तर दीर्घकाय तिमि, तिमिंगिल, तिमिंगिलगिल और ह्वेल आदि । हैं और उनसे सुपुष्ट होते हैं। इसके बदले में वे मानव-जीवन के जलचरों को भी उत्पन्न किया है। लिए अत्यन्त आवश्यक ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिसके फलस्वरूप सामान्य पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए प्रकृति की यह वायु में प्रदूषण उत्पन्न नहीं हो पाता। कार्बनडाइऑक्साइड ग्रहण वायुम प्रदूषण उत्प व्यवस्था रही है। परन्तु स्वार्थी मानव कभी जिह्वा के स्वाद के लिए करने का यह कार्य वृक्ष प्रायः रात्रि में करते हैं और प्रातः कभी शारीरिक शक्ति प्राप्त करने के नाम पर, कभी सौन्दर्य ऑक्सीजन छोड़ते हैं। पीपल आदि वृक्ष ऐसे भी हैं जो मानों प्रसाधन के लिए और कभी घर की साज-सज्जा के लिए इन ऑक्सीजन के भण्डार हैं और वे रात्रि में भी प्रभूत मात्रा में जीव-जन्तुओं की हिंसा करने में प्रवृत्त हो गया। यह जीवहिंसा ऑक्सीजन विसर्जित करते हैं। नीम, अशोक आदि कुछ वृक्ष ऐसे उत्तरोत्तर बढ़ती गयी और आज भूमि, जल और वायु का प्रदूषण हैं, जो अन्य अनेक प्रकार के वायुगत प्रदूषणों को समाप्त करके बढ़ाने में हेतु बन गयी। जैन आचार संहिता में श्रावक और श्रमण पर्यावरण, में संतुलन बनाये रखते हुए मनुष्य को स्वास्थ्य प्रदान दोनों के लिए अपने कर्त्तव्य और सामर्थ्य के अनुरूप अहिंसा का करते हैं। पारमन्य न्यान्मएडयालय ल्यापण्याय 1000000002016S89CROCOPARAN P 106 o 00.00 DAROOPSEPOR 2800-202 ODOD 000000000 20.ORNORM YMNNITOCOG
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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