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________________ Drugian ५७२ तनाव, अनिद्रा, चिन्ता, बेचैनी आदि बढ़ते रहते हैं, कभी-कभी तो आन्तरिक प्रदूषण से हार्टफेल तक हो जाता है। बाहर से शरीर सुडौल, स्वस्थ और गौरवर्ण, मोटा-ताजा दिखाई देने पर भी आन्तरिक प्रदूषण के कारण अंदर-अंदर खोखला, क्षीण और दुर्बल होता जाता है। उस आन्तरिक प्रदूषण का बहुत ही जबर्दस्त प्रभाव हृदय और मस्तिष्क पर पड़ता है। इतना होने पर भी किसी को अपने धन-सम्पत्ति और वैभव का गर्व है, किसी को विविध भाषाओं का या विभिन्न भौतिक विद्याओं का, किसी को जप-तप का और किसी को शास्त्रज्ञान का किसी को बुद्धि और शक्ति का, किसी को अपनी जाति, कुलीनता और सत्ता का अहंकार है। इस कारण वे आन्तरिक प्रदूषण से ग्रस्त होकर दूसरों का शोषण करने, उनकी अज्ञानता का लाभ उठाने, उन्हें नीचा दिखाने को तत्पर रहते हैं। आन्तरिक पर्यावरण के प्रदूषित होने का एक प्रमुख कारण : वृत्तियों की अशुद्धता उन आन्तरिक पर्यावरण प्रदूषित होने का एक प्रमुख कारण है, वृत्तियों का अशुद्ध होना। आज मनुष्य की वृत्तियाँ बहुत ही अशुद्ध हैं, इस कारण उसकी प्रवृत्तियाँ भी दोषयुक्त हो रही हैं। वृत्ति यदि विकृत है, दूषित है, अहंकार, काम, क्रोध, लोभ आदि से प्रेरित है तो उसकी प्रवृत्ति भी विकृत, दूषित एवं अहंकारादि प्रेरित समझनी चाहिए। बाह्य प्रवृत्ति से शुद्ध-अशुद्ध वृत्ति का अनुमान लगाना ठीक नहीं है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की बाह्य प्रवृत्ति तो शुद्ध-सी दिखाई देती थी, परन्तु वृत्ति अशुद्ध और विकृत थी । तन्दुल मच्छ की प्रवृत्ति तो अहिंसक -सी दिखाई देती थी, किन्तु उसकी वृत्ति सप्तम नरक में पहुँचाने वाली हिंसापरायण बन गई थी। विकृत वृत्ति आन्तरिक प्रदूषण को उत्तेजित करती है। आज प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय में, ग्राम-नगर, प्रान्त में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की और दूसरे राष्ट्रों की उन्नति, विकास और समृद्धि से ईर्ष्या, द्वेष करता है, अविकसित देशों में गृह कलह को बढ़ावा देकर उनकी शक्ति कमजोर करने में लगे हैं। यह कुवृत्तियों के कारण हुए आन्तरिक प्रदूषण का नमूना है। अमेरिका में भौतिक वैभव, सुख-साधनों का प्राचुर्य एवं धन के अम्बार लगे हैं, फिर भी आसुरी वृत्ति के कारण आन्तरिक प्रदूषण बंढ़ जाने से अमेरिकावासी प्रायः तनाव, मानसिक रोग, ईर्ष्या, अहंकार, क्रोध, द्वेष आदि मानसिक व्याधियों से त्रस्त है। निष्कर्ष यह है कि अगर प्रवृत्तियों को सुधारना है तो काम, क्रोध आदि वृत्तियों से होने वाले आन्तरिक प्रदूषण का सुधारना अनिवार्य है। वृत्तियों में अनुशासनहीनता, स्वच्छन्दता, कामना-नामना एवं प्रसिद्धि की लालसा, स्वत्व-मोहान्धता आदि से आन्तरिक पर्यावरण प्रदूषित है तो प्रवृत्तियां नहीं सुधर सकतीं। आन्तरिक पर्यावरण प्रदूषण का मूल स्रोत : राग द्वेषात्मक वृत्तियाँ वस्तुतः राग-द्वेषात्मक वृत्तियाँ ही विभिन्न आन्तरिक पर्यावरणों के प्रदूषित होने की मूल स्रोत हैं। ये ही दो प्रमुख वृत्तियाँ काम, (स्त्री-पुं-नपुंसकदेवत्रय) क्रोध, रोष, आवेश, कोप, कलह, उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ अभ्याख्यान, पैशुन्य, मोह, परपरिवाद इत्यादि अनेक वृत्तियों की जननी हैं। भगवद् गीता के अनुसार क्रोध और इसके पूर्वोक्त पर्यायों से बुद्धिनाश और अन्त में विनाश होना स्पष्ट है। क्रोध से सम्मोह होता है, सम्मोह से स्मृति विभ्रम, स्मृति भ्रंश से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से प्रणाश- सर्वनाश होना, आन्तरिक पर्यावरण के प्रदूषित होने का स्पष्ट प्रमाण है। क्रोधवृत्ति के उत्तेजित होने की स्थिति में व्यक्ति की अपने हिताहित सोचने की शक्ति दब जाती है। यथार्थ निर्णय क्षमता नहीं रह जाती। आत्मा पतनोन्मुखी बन जाती है। एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है-क्रोध करते समय व्यक्ति की आँखें (अन्तर्नेत्र) बंद हो जाती हैं, मुँह खुल जाता है। अतिक्रोध से हार्टफेल भी हो जाता है। मानववृत्ति से आन्तरिक पर्यावरण प्रदूषण क्रोध के बाद मानवृत्ति का उद्भव होता है। अहंकार, मद, गर्व, घमण्ड, उद्धतता, अहंता, दूसरे को हीन और नीच माननेदेखने की वृत्ति आदि सब मानवृत्ति के ही परिवार के हैं, जिनका वर्णन हम पिछले पृष्ठों में कर आए हैं। इस कुवृत्ति से मानव दूसरे को हीनभाव से देखता है, स्वप्रशंसा और परनिन्दा करता है, जातीय सम्प्रदायीय उन्माद, स्वार्थान्धता आदि होते हैं, जिससे आन्तरिक पर्यावरण बहुत ही प्रदूषित हो जाता है। साम्प्रदायिकता का उन्माद व्यक्तियों को धर्मजनूनी बना देता है, फिर वह धर्म के नाम पर हत्या, दंगा, मारपीट, आगजनी, धर्ममन्दिरों या धर्मस्थानकों को गिरा देने अथवा अपने धर्मस्थानों का शस्त्रागार के रूप में उपयोग करके, आतंकवाद फैलाने आदि के रूप में करता है। इस प्रकार के निन्दनीय घृणास्पद कुकृत्यों को करते हुए उसे आनन्द आता है। ऐसे निन्द्य कृत्य करने वालों को पुष्पमालाएँ पहनाई जाती हैं, उन्हें पुण्यवान् एवं धार्मिक कहा जाता है। यह सब आन्तरिक पर्यावरण को प्रदूषित करने के प्रकार हैं। माया की वृत्ति भी आन्तरिक प्रदूषणवर्द्धिनी है माया की वृत्ति भी आन्तरिक प्रदूषण बढ़ाने वाली है। यह मीठा विष है। यह छल-कपट, वंचना, ठगी, धूर्तता, दम्भ, मधुर भाषण करके धोखा देना, वादा करके मुकर जाना, दगा देना इत्यादि अनेक रूपों में मनुष्य जीवन को प्रदूषित करती है। झूठा तील माप, वस्तु में मिलावट करना, असली वस्तु दिखाकर नकली देना, चोरी, डकैती, बेईमानी करना, लूटना, परोक्ष में नकल करना, नकली वस्तु पर असली वस्तु की छाप लगाना, ब्याज की दर बहुत ऊँची लगाकर ठगना, धरोहर या गिरवी रखी हुई वस्तु को हजम करना, झूठी साक्षी देना, मिथ्या दोषारोपण करना, किसी के रहस्य को प्रगट करना, हिंसादि वर्द्धक पापोत्तेजक, कामवासनावर्द्धक उपदेश देना, करचोरी, तस्करी, कालाबाजारी, जमाखोरी करना, आदि सब माया के ही विविध रूप हैं। किसी को चिकनी चुपड़ी बातें बनाकर अपने साम्प्रदायिक, राजनैतिक या आर्थिक जाल में फंसाना, चकमा देना, क्रियाकाण्ड का सब्जबाग दिखाकर या अपने सम्प्रदाय, मत, पंथ का बाह्य आडम्बर रचकर भोले-भाले लोगों को स्व-सम्प्रदाय मत या पंथ
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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