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________________ जन-मंगल धर्म के चार चरण वातावरण विषाक्त हो जाता है। उद्योगों में भारी-भारी भट्टियां और प्रचण्ड ताप देने वाले अन्य अग्नि रूप प्रयुक्त होते हैं। इन सबसे वायु ही नहीं धरती का तापमान भी असामान्य रूप से बढ़ जाता है, ज्वालामुखी फूटते हैं और भीतर की अनेक विषैली गैसें बाहर आकर पर्यावरण को दूषित कर देती हैं। अनेक भारी-भारी आयुधों के परीक्षण होते हैं, उपग्रह छोड़े जाते हैं ये सभी तापवर्धक हैं। बाहर का ताप धरती को भीतर से भी असामान्य बना देता है और भूकम्प जैसी महाविनाशक विभीषिकाएं घटित हो जाती हैं। वनस्पति प्रदूषण मानव के लिए सर्वाधिक घातक है। वनस्पति का भी मनुष्य को कृतज्ञ रहना चाहिए। इसकी बड़ी पोषक और रक्षक भूमिका मनुष्य के लिए रहती है। यही उसे भोजन देती है, फल देती है, औषधि देती है, अन्य जीवनोपयोगी साधन सुलभ कराती है। मनुष्य ने स्वकेन्द्रित होकर अपने तुच्छ और तात्कालिक स्वार्थों के अधीन होकर इसी उपकारिणी वनस्पति का घात किया है परिणाम घोर विनाशलीला में परिणत होना स्वाभाविक ही है। जो ऑक्सीजन प्राणवायु है उसका उत्पादक अभिकरण भी वनस्पति ही है। मनुष्य द्वारा उत्पादित कार्बन डाई ऑक्साइड को पेड़ पौधे भोजन के रूप में ग्रहण कर लेते हैं - यह वनस्पति का दूसरा लाभकारी पक्ष है। कितनी रचनात्मक सहायता मनुष्य को जीवित रखने के लिए वनस्पति कर रही है। भगवान महावीर स्वामी की वाणी को वनस्पति जगत ने तो साकार कर दिखाया है, किन्तु प्रबुद्ध मनुष्य उसे विस्मृत करता जा रहा है - कैसी विडम्बना है। दुर्बुद्धि मनुष्य जिस निष्ठुरता के साथ वनों को नष्ट कर रहा है, 020 Education premation) D♡♡OOD ५५९ उसे देखकर उसकी आत्मघाती चेष्टाओं पर आश्चर्य होता है। हमारी परम्परा में तो वृक्षों को पूज्य माना गया है। वनस्पति अन्य प्राकृतिक तत्वों को भी शुद्ध करती है। वायु को ऑक्सीजन देकर और कार्बन डाइ ऑक्साइड सोखकर परिशोध करने वाली वनस्पति है। प्रदूषित जल को सोखकर मेघ बनते हैं, मेघों को बुलाकर वर्षा कराने में वनों की गहन और महती भूमिका रहती है। इस प्रकार मनुष्य को अदोष जलराशि दिलाने का काम वनस्पति करती है। वही क्षरण से मिट्टी की रक्षा कर वन एवं उपजाऊ धरती के समापन को रोकती है ऐसी वरदा बनस्पति को अपनी अहिंसा प्रवृत्ति का उपहार देकर रक्षित करना मनुष्य का परम धर्म है। प्रकृति के पांचों तत्वों का ऋणी होना चाहिए मनुष्य को इसमें कोई संदेह नहीं। ये तत्व अहिंसक हैं और मनुष्य का घात करना तो दूर उसके वश में है ही नहीं, वे उसे सुखपूर्वक जीने में अपनी ओर से आधारभूत सहायता देते हैं। मनुष्य को भी यही भूमिका उनके प्रति निभानी चाहिए। यह परस्परोग्रहं है। जीओ और जीने दो के सिद्धांत का जीवित रूप इन तत्वों में दृष्टिगत होता है इनसे मनुष्य भी प्रेरणा से, उनका अनुसरण करे तो वह स्वयं के साथ-साथ सारे मानव जगत् के लिए सुखी और सुरक्षित जीवन का स्रोत बन सकेगा। ये पांचों तत्व जीवन हैं। जीव पर दया का भाव भी हमारे मन में प्रबल हो जाए तो हमारा यह आदर्श मार्ग सुगम हो जाएगा। ऐसा न करना न केवल प्राकृतिक तत्वों के लिए अपितु स्वयं मनुष्य के लिए भी मारक और घातक सिद्ध होगा और कुछ नहीं तो स्वार्थ बुद्धि के वशीभूत होकर ही अहिंसा की शरण में आ जाए फिर तो शुभ ही शुभ-मंगल ही मंगल है। मनुष्य को पाप और बुरे काम से डरना चाहिये, अपने कर्त्तव्य से नहीं डरना चाहिये। यदि उद्देश्य शुभ न हो तो ज्ञान, तप आदि भी पाप हो जाते हैं। हम लोग ज्ञान- पापी हैं। जानने-समझने के बाद भी पापकर्म करना नहीं छोड़ते। फिर अज्ञानी बनने का ढोंग रचते हैं और रोते हैं। जीना सब चाहते हैं पर जीना बहुत कम जानते हैं। - उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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