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________________ RAJ550.000 Paom २७:094046600:09406003031 ĐANG OB = 2 hàng này 700:0:0:0 :0:0:0:0: 5 9POONA 606oRNabar9000ROR 00000000000000 4200-800 800 33 - 1५४६ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ अनेक संदर्भ उपलब्ध हैं जब पतित से पतित माने जाने वाले । शुद्धि आदि अधिक उल्लेखनीय हैं। इन सभी पर्यायवाची शब्दों का जिज्ञासुओं ने दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को पवित्र और पावन । प्रयोजन और प्रयोग प्रायः समान ही है-अशुद्धि से विशुद्धि की बनाया है। दीक्षा के लिए वय की दृष्टि से भी कोई विशेष निर्देश { ओर उन्मुख होना। आक्रमण में बाहरी आग्रह है जबकि प्रतिक्रमण नहीं दिया गया है। चाहे बालक हो चाहे हो (तरुण) वयस्क फिर } में आन्तरिक अनुग्रह। चाहे हो वृद्ध, जिसमें भावों की प्रबलता और वैराग्य का बलवती प्रयोग और उपयोग की दृष्टि से प्रतिक्रमण के दो भेद किए जा वेग हो वही साधकेच्छु दीक्षा ग्रहण कर सकता है। सकते हैंभारत की अन्य अनेक संस्कृतियों में संन्यास लेने के लिए १. द्रव्य प्रतिक्रमण २. भाव प्रतिक्रमण जीवन का उत्तरार्द्ध समय अत्यन्त उपयोगी और सार्थक स्वीकारा । गया है। जैन संस्कृति ने इस दिशा में एक उत्तम उत्क्रान्ति उत्पन्न द्रव्य प्रतिक्रमण वह जिसमें साधक एक स्थान पर आसीन कर दी। दीक्षा लेने के लिए यहाँ वयस्क अथवा तरुण काल ही होकर बिना उपयोग के यश प्राप्ति की अभिलाषा से प्रतिक्रमण श्रेष्ठ और श्रेयस्कर निरूपित किया है। इस समय शारीरिक ऊर्जा करता है। भाव प्रतिक्रमण में साधक अन्तर्मानस में अपने कृत पापों उत्कर्ष को प्राप्त होती है तभी इन्द्रियों का उपयोग भोग से हटाकर के प्रति ग्लानि अनुभव करता है। वह इस गिरावट के लिए चिन्तन योग की ओर रूपान्तरित करना चाहिए। जब इन्द्रियाँ शिथिल हों करता है, भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो अतः वह दृढ़तापूर्वक तब साधना करने की सम्भावना शेष नहीं रहती और संयम का भी संकल्प करता है ताकि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो। भाव संयोग प्रायः रहता नहीं, विवशता का परिणाम संयम नहीं, कहा जा प्रतिक्रमण की उपयोगिता इतस्ततः असंदिग्ध है। सकता। इसीलिए आगम साहित्य में ही नहीं परवर्ती साहित्य में भी जीवन मांजने की कला का अपरनाम है-प्रतिक्रमण। सावधानी बाल दीक्षा का निषेध नहीं है। पूर्वक दिन भर रोजनामचा-क्रियाकलाप का तल पट-तौलनाप दर असल बुभुक्षु व्यक्ति नहीं अपितु मुमुक्ष व्यक्ति ही दीक्षा करके साधक अभाव को जानता है और उचित सुधार और उद्धार ग्रहण करने की पात्रता रखता है जिसमें चंचल चित्त की एकाग्रता कर वह सद् वृत्तियों का अभ्यास करता है ताकि जीवन शोधन में उत्पन्न करने की शक्ति और सामर्थ्य विद्यमान हो। उसे अपनी खोज कोई अभाव शेष न रह जाय। प्रतिक्रमण में अपनी गिरावट उसके 1000 स्वयं करनी होती है वह किसी यात्रा का अनुकरण कर लाभान्वित परिहार का पुनर्विचार तथा विकास का विवेकपूर्वक आचरण करना नहीं हो सकता। जागतिक जीवन-उत्कर्ष के लिए पराई नकल की होता है। जा सकती है पर आध्यात्मिक उन्नति और उन्नयन के लिए किसी मुखवस्त्रिका-श्वेताम्बर साधु समुदाय के अन्तर्गत दो प्रमुख प्रकार की नकल उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकती। इसके लिए साधक परम्पराएँ हैं-स्थानकवासी और दूसरी है तेरापंथी। ये दोनों साधु को अपने अन्तरंग की ऊर्जा को उद्दीप्त करना होता है। अन्तरंग परम्पराएँ मुखवस्त्रिका का प्रयोग और उपयोग करती हैं। यह का अन्वेषण अथवा अन्तर्यात्रा तेज को तेजस्वी बनाता है। दीक्षा वस्त्रिका या पट्टिका श्वेत रंग की होती है। इसी काम को सम्पन्न करती कराती है। श्रमण-साधु-जीवन के प्रत्येक चरण में अहिंसा की प्रधानता प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण साधु चर्या का महत्त्वपूर्ण शब्द है। इसके रहती है। शरीर के भीतर गया श्वांस प्रायः उष्ण हो जाता है और अभ्यास करने से साधक का विचलित चरण सदाचरण में परिणत } जब वह वार्तालाप के साथ बाहर निकलता है तब बाहरी शीतल हो जाते हैं। वातावरण में वायुकायिक जीवों पर अपनी ऊष्मा से प्रहार करता प्रतिक्रिमण शब्दों के संयोग से प्रतिक्रमण शब्द का गठन हुआ है। उनको निरर्थक कष्ट होता है। किं बहुना कभी-कभी विराधना है। प्रति शब्द का अर्थ है-प्रतिकूल और क्रमण शब्द का तात्पर्य है भी हो जाती है। एक तो इसलिए श्रमण 'मुँहवस्त्रिका' का प्रयोग पद निक्षेप। प्रतिकूल अर्थात् प्रत्यागमन, पुनः लौटना ही वस्तुतः करता है। प्रतिक्रमण है। प्रमाद तज्जन्य अज्ञानतावश जब साधक अपनी दूसरे साधु अटवीन्मुख होता है। वह सदा पदयात्री रहता है स्वभाव दशा से लौट कर विभाव दशा में चला जता है और पुनः। अतः मार्ग में रजकण उनके मुँह द्वार से भीतर चले जाते, हैं जो चिन्तवन कर जब वह पुनः स्वभाव सीमाओं में प्रत्यागमन करता है। स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद सिद्ध होते हैं। यह 'मुँह वस्त्रिका' का तो वह कहलाता है-प्रतिक्रमण। प्रतिक्रमण वस्तुतः पुनरावृत्ति है। प्रयोग इस दिशा में अत्यन्त उपयोगी प्रमाणित होता है। इसके सूक्ति रूप में कहें तो कहा जा सकता है-पाप से आप में लौटना अतिरिक्त चिन्तन, ध्यान और आराधना काल में भी इसका प्रयोग प्रतिक्रमण है। एकाग्रता में सहायक सिद्ध होता है। आगम के वातायन से प्रतिक्रमण जन्य अनेक शब्द निसृत हुए। मंगली पाठ-श्रमण अथवा साध चर्या सदा स्व-पर कल्याण में हैं, जिनमें वारणा, प्रतिचरण, प्रतिहरणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, तथा प्रवृत्त रहती है। तीर्थंकर-भगवन्तों द्वारा निर्दिष्ट देशना का अभ्यास SDED OBiplundrion Grame POED0000 5800000000000000000HRISOure Dily to 100.0000300 POSonDIDSD 6. 2 0595 B CONOure OS GARORS O900004034COXYD 00000062005
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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