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________________ P 300-00 -00 0 000-00-0003 Glosopana WOM00 2006DDES उपसंहार-इस प्रकार भारतीय संस्कृति के प्राचीन ग्रन्थों तथा मुख्यतः जैन ग्रन्थों के अनुशीलन से प्राचीन शिक्षा प्रणाली का जो स्वरूप उपलब्ध होता है, उससे यह पता चलता है कि प्राचीन काल 8002000 में शिक्षा या ज्ञान-प्राप्ति का उद्देश्य व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास करना था। शरीर एवं इन्द्रियों का विकास करना मात्र शिक्षा का उद्देश्य नहीं है, यह तो पशुओं में भी होता है, पक्षियों और कीट-पतंगों में भी होता है। मनुष्य के भीतर तो असीम शक्तियों के 8 विकास की संभावना छिपी है, शिक्षा के द्वारा उन शक्तियों को BI जागृत एवं प्रकट किया जाता है। पत्थर या मिट्टी में मूर्ति बनने की योग्यता तो है ही, कुशल Re00 शिल्पकार उसे सुन्दर आकृति देकर उस क्षमता को प्रकट कर देता है। गुरु को इसी लिए कुम्भकार शिल्पकार बताया है जो विद्यार्थी 200900PP की सुप्त/निद्रित आत्मा को जागृत कर तेजस्वी और शक्ति सम्पन्न उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । बना देता है। व्यक्ति समाज का एक अभिन्न घटक है। निश्चित ही अगर उसके व्यक्तित्व का, शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास होगा, उसमें तेजस्विता आयेगी। तो समाज स्वयं ही प्रगति और उन्नति के पथ पर अग्रसर होगा। अतः व्यक्तित्व के समग्र विकास हेतु जो मानदंड, नियम, योग्यता, पात्रता तथा पद्धतियाँ प्राचीन समय में स्वीकृत या प्रचलित थीं, उनके अध्ययन/अनुशीलन के आधार पर आज की शिक्षा प्रणाली पर व्यापक चिन्तन/मनन अपेक्षित है, परिवर्तन और परिष्कार भी वांछनीय है। प्राचीन भारतीय जैन शिक्षा प्रणाली भारत की जलवायु तथा मानसिकता के अनुकूल थी, अतः उन सन्दर्भो के साथ आज की शिक्षा प्रणाली पर आवश्यक चिन्तन होना अपेक्षित है। पता : दिवाकर प्रकाशन ए-७, अवागढ हाउस एम. जी. रोड, आगरा-२८२००२ K १. विस्तार के लिए देखें-१. प्रवचनसारोद्वार द्वार-२३८, गाथा १३५६-५८ २.धर्मसंग्रह अधिकार-१, गाथा-२० २. रघुवंश-३/२८/२९ (कालिदास ग्रंथावली) ३. कौटिलीय अर्थशास्त्र-प्रकरण २१-अ-४. ४. आदिपुराण (महापुराण)-१६/१०४ तथा त्रिषष्टि. १/२ एवं आवश्यकचूर्णि ५. कुमारं सातिरेग अट्ठवास सयं जायं अम्मापियरो कलायरियस्स उवणेति' """""भगवती सूत्र ११/११, ज्ञातासूत्र १/१, अन्तकृद्दशासूत्र-३/१ ६. गुणचन्द्र का महावीर चरित्र तथा त्रिषष्टि शलाका परुषचरितं देखें। ७. पढम दसाङ-अट्ठवरिसोवरि, नवम-दसमेसु दीक्खा-निशीथचूर्णि उद्देशक-११ ८. परिशिष्ट पर्व-सर्ग-५ ९. परिशिष्ट पर्व-सर्ग-१२ १०. ललित विस्तर, पृष्ठ-१४३ ११. चुल्लवग्ग-१-७-२, डा. हरीन्द्रभूषण जैन-प्राचीन भारत में शिक्षा पद्धति १२. चत्तारि वायणिज्जा-विणीते, अविगतिपडिबद्धे, विओसितपाहुडे अमाई स्थानांग-४/सूत्र ४५३ १३. तओ अवायणिज्जा-दुढे, मूढे, वुग्गहिए-स्थानांग-३ १४. उत्तराध्ययन-१/३७-३९ १५. (१) अह अट्ठहिं ठाणेहिं सिक्खासीले त्ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दन्ते न य मम्ममुदाहरे॥ (२) नासीले न विसीले न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले त्ति वुच्चई॥ -उत्तराध्ययन-११/४-५ १६. आदि पुराण (भाग-१) १४०-१४८ तथा आदि पुराण (खण्ड-३) ३८/१०९-१११८ १७. उत्तराध्ययन-११/३ १८. आदि पुराण-भाग-१ १९. सेलघण-कुडग-चालणि परिपूणग हंस-महिस-मेसेय-मरुग-जलुग-विराली। २०. आणा णिद्देस करे, गरूणमुववाय कारए। इंगियागार संपन्ने से विणीए त्ति वुच्चइ।। -उत्तरा. १/२ २१. एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो-दशवै. ९/२/२ २२. उत्तरा. १/९ २३. उत्तरा. ११४ २४. भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिज्जा। -आचारांग-२/३/३ २५. अब्भुटाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं, गुरुभक्ति भावसुस्सूसाविणओ एस वियाहिओ -उत्त. ३०/३२ २६. वसे गुरुकुले निच्च जोगवं उवहाणवं, पियं करे पियं वाई से सिक्खं लभूमरिहइ उत्त.-११/१४ २७. उत्तरा.-१/१७ २८. छांदोग्य उपनिषद् ७/८/१ २९. उत्तरा.-१/२२-२३ ३०. उत्तराध्ययन-२२-२३ ३१. देखिए भगवती सूत्र के प्रसंग ३२. सूत्रकृतांग-२/७/३७ ३३. उत्तराध्ययन-११/१४ ३४. उत्तरा.-११/१०-१४ ३५. दशवै. ९/२/१४-१५,जिनदास चूर्णि पू. ३१४, दसवेआलियं, पृ. ४३९ ३६. दशवैकालिक-९/३/१३ ३७. दशवै. १/२/३१ जिनदासचूर्णि पू. ३४१, दसवैआलियं-पृ. ४३९ ३८. देखें-त्रिषष्टिशलाका-१/२, आवश्यकचूर्णि तथा महापुराण पर्व-१६ ३९. इसी के साथ-भगवती ३१, ज्ञातासूत्र-१/२, अन्तकृद्दशा सूत्र-३/9 आदि में कला शिक्षण का विस्तृत उल्लेख मिलता है। ४०. दशवैकालिक-९/४ ४१. स्थानांग सूत्र-५/३ 00:00:00 DHDOO
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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