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________________ 00000000000 IPU0:00:00 Ga-00-000-00.00000 DPac0000 0000 | अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर ४१ 1966 1008 योग और उपधान (शास्त्र अध्ययन के साथ विशेष तपश्चरण) गौतम की प्रश्नोत्तर शैली करने वाला, सबका प्रिय करने वाला और सबके साथ प्रिय मधुर बोलने वाला, शिक्षा एवं ज्ञान प्राप्त कर सकता है।२६ गुरु शिष्य के बीच प्रश्न-उत्तर की सुन्दर शैली पर गणधर गौतम का आदर्श हमारे सामने है। जब भी किसी विषय पर उनके उत्तराध्ययन में ही कहा है-शिष्य गुरुओं, आचार्यों के समक्ष मन में सन्देह या जिज्ञासा उत्पन्न होती है तो वे उठकर भगवान या अकेले में कभी उनके प्रतिकूल अथवा विरुद्ध न बोले, न ही महावीर के पास आते हैं और विनय पूर्वक उनसे प्रश्न पूछते हैं। उनकी भावना के विपरीत आचरण करें।२७ प्रश्न का समाधान पाकर व प्रसन्न होकर कृतज्ञता प्रदर्शित करते छान्दोग्य उपनिषद् का यह मन्तव्य भी इसी विचार को परिपुष्ट हुए कहते हैं-भन्ते! आपने जो कहा, वह सत्य है, मैं उस पर श्रद्धा करता है करता हूँ।३१ यदा वै बली भवति, तदा उत्थाता भवति, उत्तिष्ठन् परिचरिता उत्तर प्रदाता गुरु के प्रति शिष्य को इतना कृतज्ञ होना चाहिए भवति, परिचरन् उपसत्ता भवति, उपसीदन् द्रष्टा भवति, श्रोता । कि वह उत्तर प्राप्त कर अपनी मनस्तुष्टि और प्रसन्नता व्यक्त करे। भवति, बोद्धा भवति, कर्ता भवति, विज्ञाता भवति।२८ उनके उत्तर के प्रति अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करें। जब शिष्य में आत्मबल जागृत होता है तो वह उठ खड़ा होता एक बार गणधर इन्द्रभूति के पास भगवान पार्श्वनाथ परम्परा है। फिर वह अप्रमादी होकर गुरु की परिचर्या करता है। परिचर्या । के श्रमण उदक पेढाल आये और अनेक प्रकार के प्रश्न पूछे। करता हुआ गुरु की सन्निधि में बैठता है। गुरु की शिक्षाएँ सुनता है। इन्द्रभूति ने सभी प्रश्नों का बड़ी स्पष्टता और सहजता से उत्तर उन पर मनन करता है। उन्हें जानकर हृदयंगम कर लेता है उन दिया, किंतु गणधर इन्द्रभूति के उत्तर से उदक पेढाल क्रुद्ध हो पर अपनी जीवनचर्या ढालता है। और फलस्वरूप वह विज्ञाता गया, खिन्न भी हुआ और वह प्रश्नों का समाधान पाकर भी गौतम विशिष्ट विद्वान-आत्मज्ञानी बन जाता है। का अभिवादन किये बिना, धन्यवाद या कृतज्ञता के दो शब्द भी गुरुजनों के समक्ष बैठने उठने की सभ्यता और शिष्टता पर बोले बिना उठकर चलने लगा। स्पष्टवादी गौतम को उदक पेढाल विचार करते हुए कहा गया है-शिष्य-आचार्यों के बराबर न बैठे, का यह व्यवहार अनुचित लगा। तब गौतम ने उदक पेढाल को पीछे आगे न बैठे, पीछे से सटकर न बैठे, गुरु की जांघ से जांघ सम्बोधित करके कहा-भद्र ! किसी श्रमण-निर्ग्रन्थ या गुरुजन से धर्म सटाकर न बैठे। गुरु बुलावे तो विस्तर या आसन पर बैठे-बैठे ही का एक भी पद, एक भी वचन सुना हो, अपनी जिज्ञासा का उनको उत्तर ने देवे। बल्कि उनका आमंत्रण सुनकर आसन से उठे, समाधान पाया हो, या योग-क्षेम का उत्तम मार्ग दर्शन मिला हो तो, निकट आकर विनयपूर्वक निवेदन करे-२९ क्या उनके प्रति कुछ भी सत्कार सम्मान व आभार प्रदर्शित किये बिना उठकर चले जाना उचित है? उठने बैठने की यह ऐसी सभ्यता है, जो गुरुजनों के लिए ही क्या, मनुष्य को सर्वत्र जीवन में उपयोगी होती है। इससे व्यक्ति की उदक पेढाल ने सकुचाते हुए पूछा-आप ही कहिए, उनके प्रति सुसंस्कृतता, उच्च सभ्यता झलकती है। मुझे कैसा व्यवहार करना चाहिए? __गणधर गौतम ने कहा-एगमपि आरियं सुवयणे सोच्चा" प्रश्न पूछने का तरीका आढाई परिजाणेति वंदति नमंसति ३२ शिक्षा काल में शिष्य को शास्त्रीय ज्ञान के साथ-साथ गुरुजनों से एक भी आर्य वचन सुनकर उनके प्रति आदर व्यावहारिक ज्ञान, सभ्यता और शिष्टतापूर्ण आचरण भी आवश्यक { और कृतज्ञता का भाव व्यक्त करना चाहिए। यही आर्य धर्म है। है। इसलिए जैन शास्त्रों में “विनय' के रूप में विद्यार्थी के गौतम का यह उपदेश और स्वयं गौतम की जीवनचर्या से गुरु अनुशासन, रहन-सहन, वर्तन, बोलचाल आदि सभी विषयों पर । शिष्य के मधुर श्रद्धापूर्ण सम्बन्ध और प्रश्न उत्तर की शैली तथा बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया गया है और उसके आवश्यक उत्तर प्रदाता, ज्ञानदाता गुरु के प्रति कृतज्ञ भावना प्रकट करना सिद्धान्त भी निश्चित किये गये हैं। गुरुओं से प्रश्न पूछने के तरीके एक आदर्श पद्धति पर प्रकाश पड़ता है। आज के संदर्भो में भी इस पर विचार करते हुए बताया है प्रश्नोत्तर पद्धति और कृतज्ञ भावना की नितांत उपादेयता है। आसणगओ न पुच्छेज्जा नेव सेज्जागओ कया, वास्तव में गुरुजनों की भक्ति और बहुमान तो विनय का एक गुरुजनों से कुछ पूछना हो तो अपने आसन पर बैठे-बैठे, या } आवश्यक अंग है। दूसरा अंग है-शिक्षार्थी की चारित्रिक योग्यता शय्या पर पड़े-पड़े ही न पूछे, किन्तु खड़ा होकर हाथ जोड़कर नम्र और व्यक्तित्व की मधुरता। कहा गया है-गुरुजनों के समीप आसन से प्रश्न करे।३० रहने वाल, योग और उपधान (शास्त्र अध्ययन के साथ ODDOODSDODE इण्या OSSROImay.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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