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________________ 360200.00100. (°060000000000000000 RDSDNA6oEODo:00:00:00 20:00- 0ADDA 00:00 OROR PRORS५२६ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । वस्तुओं का आश्रय लेकर शुभ या अशुभ विकल्प रूप होता है, तब हैं। संवर-निर्जरा उपादेय-ग्रहणीय हैं और मोक्ष उसका फल है। इन वह क्रमशः शुभोपयोग और अशुभ उपयोग कहलाता है। धर्म-ध्यान, सात तत्वों की प्रक्रिया कर्म-बन्ध से निष्कर्म की प्रक्रिया कहलाती है। जीव दया, सद् विचार, सद् वचन, सद् कार्य, दान अनुकम्पा, कर्म-बन्ध का आधार-आत्मापराध-चेतन जीव और जड़ कर्मों पूजा-भक्ति, शुद्ध ज्ञान-दर्शनादिक आदि शुभोपयोग कहलाता है जो का सम्बन्ध आत्मा के अपराध का फल है। यदि आत्मा अपने परम पुण्य-बन्ध और स्वर्ग सुख का कारण है। आर्त-रौद्रध्यान, क्रूरता, पारिणामिक शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा भाव रूप रहे तब वह संसिद्धि या मिथ्याज्ञान-दर्शनादिक, असद् विचार, असद् वचन, असद् कार्य राध रूप कहलाता है। इसका अर्थ अपने स्वभाव रूप-होने-में-होना और हिंसादि पाँच पाप रूप प्रवृत्ति अशुभ उपयोग कहलाता है जो कहलाता है। इसे ही शुद्ध पर्याय कहते हैं। किन्तु अनादि काल से पाप-बन्ध और नरक-दुख का कारण है। आत्मा ने अपने इस होने-रूप-ज्ञायक-स्वभाव को नहीं पहिचाना और भाव और उपयोग का सम्बन्ध-जीव के भाव और उपयोग । पर-पदार्थों के प्रति ममत्व, कर्ता-भोक्ता एवं स्वामित्व के इष्ट-अनिष्ट यद्यपि समानार्थी जैसे लगते हैं किन्तु इनमें आधार-भूत अन्तर है। । सम्बन्ध बनाये हैं। स्व-का-विस्मरण और पर-में-रमण का आत्मभाव जीव के शुद्ध, शुभ और अशुभ भावों या परिणामों का सूचक अपराध ही कर्म बन्ध का आधार है। 'जो आत्मा अपगतराध हैं। उपयोग जीव के अन्तरंग भावों के अनुसार उसकी ज्ञान- अर्थात् राध या संसिद्धि से रहित है, वह आत्मा का अपराध है' दर्शनात्मक परिणति का सूचक है। शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा भाव से । (समयसार-३०४)' 'जो पर द्रव्य को ग्रहण करता है वह अपराधी शुद्धोपयोग, प्रशस्त राग से शुभोपयोग और मोह-द्वेष तथा अप्रशस्त है, बंध में पड़ता है। जो स्व-द्रव्य में ही संवृत्त है, ऐसा साधु राग से अशुभोपयोग की प्रवृत्ति होती है। भाव और उपयोग के निरपराधी है' (समयसार कलश १८६)। अनुसार कर्म से निष्कर्म/मोक्ष की चौदह श्रेणियाँ हैं, जो गुणस्थान आत्म-अपराध का कारण-तत्वार्थ सूत्र के अध्याय ८ का प्रथम कहलाती हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र गुणस्थानों में क्रमशः सूत्र है-“मिथ्या दर्शनाविरति प्रमाद कषाय योगा बन्ध हेतवः'' घटता हुआ अशुभ उपयोग होता है। अविरत सम्यक्त्व, संयमासंयम अर्थात् मिथ्यात्व (दर्शन मोह), अविरति-प्रमाद-कषाय (चारित्र मोह) एवं प्रमत्त विरत गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का साधक क्रमशः बढ़ता और योग, यह कर्म-बन्ध के कारण हैं। इनमें मिथ्यात्व-आत्म हुआ शुभ उपयोग होता है। अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति अश्रद्धान 'मोह' है। अविरति प्रमाद और कषाय राग द्वेष हैं तथा करण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशांत कषाय एवं क्षीण कषाय गुणस्थानों मन-वचन-काय की शुभ-अशुभ रूप प्रवृत्ति 'योग' है। मोह-राग-द्वेष में तारतम्य पूर्वक बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग होता है। सयोग और जीव के अशुद्ध पर्याय रूप विभाव-भाव हैं जबकि योग शरीराश्रित अयोग केवली गुणस्थान शुद्धोपयोग का फल शुद्धात्मा रूप स्वभाव क्रिया का परिणाम है। कार्य तत्व की उपलब्धि है। इस प्रकार भाव-लक्ष्य के अनुसार आत्मा के ज्ञान-दर्शन रूप व्यापार की परिणति से शुद्ध वीतराग मन-वचन-काय के शुभ-अशुभ योग रूप स्पंदन होने से आत्मा पर्याय की उपलब्धि होती है (प्रवचनसार गाथा ९)। उपयोग की के प्रदेश प्रकंपित होते हैं जिससे शुभ-अशुभ कर्मों का आश्रव प्रवृत्ति के अनुसार आगे-आगे के गुण स्थानों में कर्मों का उच्छेद भी (आगमन) होता है। पश्चात् मोह-राग-द्वेष के भावों की सचिक्कणता होता जाता है, यथा-मिथ्यात्व गुणस्थान में १६, सासादन में २५, क अनुसार कम-बन्ध हाता हा आयु कम-बन्ध को छोड़कर शेष अविरत सम्यक्त्व में १०, संयमासंयम में ४, प्रमत्त विरत में सात कर्मों का बन्ध विभाव-भावों के अनुसार एक साथ होता है। अप्रमत्त विरत में एक, अपूर्वकरण में ३६, अनिवृत्तिकरण में ५, कर्म-बन्ध के सम्बन्ध में प्रवचनसार की कुछ गाथाएँ महत्वपूर्ण हैं, सूक्ष्म सम्पराय में १६, और अयोग केवली में एक कर्म बन्ध की जिनका अर्थ इस प्रकार हैव्युच्छिति होती है। अयोग केवली कर्म-बन्ध रहित होते हैं। "जब आत्मा राग-द्वेष-मोह युक्त होता हुआ शुभ और अशुभ सात तत्व-'जीवाजीवाश्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा- मोक्षास्तत्वम्' (त. में परिणमित होता है तब कर्म-रज ज्ञानावरणादिक रूप से उसमें सूत्र अ. १- सू. १-४) जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा प्रवेश करती है। प्रदेश युक्त यह आत्मा यथा काल मोह-राग-द्वेष के और मोक्ष यह सात तत्व कहलाते हैं। इन तत्वों की सही जानकारी द्वारा कषायित होने से कर्म रज से लिप्त या बद्ध होता हुआ बंध और तदनुसार विश्वास से मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है। आध्यात्मिक कहा गया है (गाथा १८७/१८८)।" "रागी आत्मा कर्म बांधता है, संदर्भ में जीव ज्ञायक आत्मा है। अजीव जड़ कर्म हैं। मन-वचन राग रहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है- यह जीवों के बन्ध का काय की शुभ-अशुभ योग रूप प्रवृत्ति से कर्मों का आत्म प्रदेशों में संक्षेप निश्चय से है। परिणाम से बन्ध है, जो परिणाम राग-द्वेष-गोह आगमन आश्रव है। मोह-राग द्वेष के भावों के कारण कर्मों का । युक्त है। उनमें से मोह और द्वेष अशुभ है और राग शुभ और आत्म प्रदेशों से एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध कर्म-बन्ध है। कर्मों का अशुभ है (गाथा १७९-१८०)।" आगमन रुकना संवर है तथा सम्यक् तप पूर्वक पूर्ववद्ध कर्मों का कर्म-बन्ध-विधान-कर्म बन्ध चार प्रकार का होता है-प्रकृति बिना फल दिये झड़ना निर्जरा है। सम्पूर्ण कर्मों का क्षय या नाश बन्ध, प्रदेश बन्ध, स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध। आचार्य वट्टकेर मोक्ष तत्व है। इनमें जीव-अजीव ज्ञेय, आश्रव और कर्म-बन्ध हेय-त्याज्य ने मूलाचार में कहा है कि "कर्मों का ग्रहण योग के निमित्त से S (seela 6 0665baccondayaatayen ADODDOOSDSSDDED
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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