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________________ OURao RajdoJP300 BARS00000 00:00:0050000.RA UPOSOBNOVOGUSU (2800 अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर ५२३ 100.00 NDA कर्म से निष्कर्म : जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त -डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल 20 2000 90 Phtohto000000 HONDODa32868609009 2000 Joodabadne 'कर्म' बहुअर्थी शब्द है जिसका प्रयोग भावों के अनुसार होता हैं। जीव और जड़ कर्म की शक्तियों के बीच अनादि काल से है। व्याकरण के षट् कारकों में वर्त्ता-कर्म-आदि में भी शब्द का निरन्तर संघर्ष चल रहा है। जीव अपने स्वभाव के प्रति मूर्छा/ उपयोग हुआ है। जो परिणमित होता है वह कर्ता है। परिणमित अविश्वास, अज्ञान और असंयम के कारण दुखी है और जड़-कर्म होने वाले का जो परिणाम है वह कर्म है और जो परिणति है, वह की शक्ति के उदय के कारण उसकी चेतन-ज्ञान शक्ति निष्प्रभ, क्रिया है। यह तीनों एक-दूसरे से अभिन्न है। किसी वस्तु विशेष का । परावलम्बी और प्रतिबंधित हो रही है। बड़ी विचित्र स्थिति है। स्वभाव-रूप-कार्य ही उसका कर्म होता है, जैसे जल का कार्य चैतन्य आत्म शक्ति स्वरूप-विस्मरण के कारण अचेतन कर्म शक्ति शीतल या नम्र रहना, अग्नि का कार्य दाहकता-पाचकता प्रकाशमान के कारागृह में अपराधी/बंदी है। आश्चर्य यह है कि बंधन तथा आत्मा का कार्य ज्ञान-दर्शन आदि। जीवात्माओं ने अपने-आप अपने प्रयासों से अपने लिये स्वयं गीता में भी कर्म-विकर्म-अकर्म की चर्चा आयी है। गीता के स्वीकार किये हैं। कर्म-बन्धन में जड़-कर्म परमाणुओं का कुछ भी अनुसार स्वधर्माचरण की वाह्य क्रिया ही कर्म है। जब कर्म कर्तव्य नहीं है और हो भी नहीं सकता क्योंकि वे इच्छा विहीन भाव-बोध पूर्वक किया जाता है तब वह विकर्म कहलाता है। ईश्वर अचेतन हैं। कर्म-बन्ध कैसे और क्यों हुआ, यह निष्कर्म रूप होने के को समर्पित निष्काम कार्य अकर्म कहलाता है। कर्म और अकर्म के लिए समझना आवश्यक है। बीच विकर्म सेतु का काम करता है। ध्यान, ज्ञान, तप, भक्ति जैन दर्शन की मान्यताएँ-जैन दर्शन की कुछ आधारभूत निष्काम-कर्म, संतुलित अनासक्त जीवन और शुभ संस्कार के साधन मान्यताएँ हैंविकर्म कहलाते हैं। १. पहले, विश्व के सभी जीव-अजीव द्रव्य स्वभाव से स्वतन्त्र, जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त किया गया। स्वाधीन, स्वावलम्बी और परिपूर्ण हैं। कोई किसी द्रव्य में कुछ है। कर्म अतिसूक्ष्म पुद्गल (अचेतन) परमाणु हैं जो जीव के परिवर्तन नहीं कर सकता; यह बात विशिष्ट है कि सभी द्रव्य मोह-राग-द्वेष भावों के कारण आत्मा के प्रदेशों में आकर आत्मा के परिवर्तन प्रवाह में एक दूसरे के सहयोगी होते हैं। साथ एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित कर आत्मा के ज्ञानादि स्वभाव २. दूसरे, विश्व का सृजन, नियमन, परिचालन एवं परिवर्तन को घातते हैं और सुख-दुख की वाह्य सामग्री उपलब्ध कराने में द्रव्यों की स्व-परिणमनशीलता के कारण होता है। अनादिकाल से निमित्त का काम करते हैं। ऐसे कर्म द्रव्य कर्म कहलाते हैं। आत्मा जो भी परिवर्तन होते रहे है/या हो रहे हैं, वह सभी द्रव्यों के और अचेतन कर्म-परमाणुओं के इस कृत्रिम एवं अस्वाभाविक परिवर्तनों का समुच्चय परिणाम है। कोई ईश्वर जैसी शक्ति विश्व सम्बन्ध को कर्मबन्ध कहते हैं। जैन दर्शन का सार कर्म-बन्ध और 1 का नियंता नहीं है। कर्म-क्षय की प्रक्रिया में निहित है! ३. तीसरे, विश्व की सभी चेतन-सत्ताएँ स्वभाव से स्वयंभू, विश्व जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह ज्ञायक और परमात्म स्वरूप हैं। वे अपने स्व-विवेक या भेद-विज्ञान द्रव्यों का समूह है। जीव को छोड़कर शेष द्रव्य अजीव हैं। पुद्गल द्वारा निज शक्ति से परमात्मा बन सकती हैं या विकार-विभाव-शक्ति द्रव्य रूपी है। जीव अरूपी है। ज्ञान-दर्शन जीव के सहज स्वाभाविक के मोहपाश में कर्मों के निमित्त से पीड़ित-प्रताड़ित-पतित होती रह गुण हैं। वह स्व-पर का ज्ञायक है। जीव अपने ज्ञान स्वभाव को । सकती हैं। छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में कुछ परिवर्तन नहीं करता। वह निर्णय की स्वतंत्रता-सभी जीवात्माएँ इन्द्रिय एवं इन्द्रिय जन्य अकर्ता-अभोक्ता है। ममत्व-स्वामित्व भाव से परे हैं। वह अपनी पूर्ण । ज्ञान से युक्त हैं। पंचेन्द्रिय मन युक्त जीवात्माएँ विशिष्ट रूप से ज्ञान शक्ति से संसार के समस्त पदार्थों की त्रिकाली अवस्थाओं को जानने, देखने और विचार करने की क्षमता रखती हैं। वे यह एक समय में जानने/देखने की शक्ति रखता है! इस कारण वह निर्णय करने में स्वतंत्र हैं कि वे ज्ञान-दर्शन रूप स्वभाव मार्ग को परमात्म स्वरूप है। चुनें जिसमें किसी का कुछ करना-धरना नहीं पड़ता मात्र ‘होलिपजड़-पुद्गल का परिवार अत्यन्त व्यापक और बहुरंगा है। रूप, ज्ञायक' रहना होता है या मोह रागादि भावों को चुने। यदि वे रस, गंध, वर्ण सहित सभी दृश्यमान वस्तुएँ, शरीरादिक अंगोपांग, मोह-राग-द्वेष के विभाव-भावों में जमी-रमी रहती है, तब पर-वस्तु अदृश्य-कर्म, मन और मन में उठने वाले क्रोध, अहंकार, मायाचार में ममत्व एवं इष्ट-अनिष्ट की भावना के कारण निरन्तर कर्म-बन्ध एवं लोभ के विकारी-भाव सभी जड़-पुद्गल परिवार में सम्मिलित करती रहती हैं। यह कर्म-बन्ध संसार-दुख का कारण है। यदि वे 0.00 yOOPOR2004800 DainEducatignenternational566002Ramainabanaoo.ForerineFor fonalisse-onl0 900100.0.0aso. . BEDDYadaabaaDODSDDOOGSODOG
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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