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________________ अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर गयी हैं। विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं के केन्द्र भारत (सिन्धु), ईरान, सुमेर, बेबीलान, असीरिया, सीरिया और मिश्र रहे २३ इनकी संस्कृतियों में अद्भुत समानता है और परस्पर आदान-प्रदान भी प्रचुर मात्रा में हुआ है। भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों के सहज मेल से बनी है। उसमें बाह्य अनेकता (रूप, रंग, भाषा, रहन-सहन) में आन्तरिक (भावात्मक) एकता निहित है। संस्कृति में आन्तरिक गुणों पर ध्यान दिया जाता है, वे ही विश्वसनीय होते हैं। एक व्यक्ति सुसभ्य होकर भी असंस्कृत हो सकता है, जबकि दूसरा व्यक्ति असभ्य होकर भी सुसंकृत हो सकता है। सभ्यता बाह्य और बौद्धिक होती है, जबकि संस्कृति आन्तरिक एवं भावात्मक होती है। वस्तुतः सभ्यता का विकास संस्कृति-सापेक्ष होना चाहिए, परन्तु बहुधा ऐसा नहीं हो पाता है। मानव बाह्य उपलब्धियों और आकर्षणों में उलझकर रह जाता है। सभ्यताएँ नष्ट हो जातीं हैं, पर संस्कृति चिर प्रवहमान रहती है। सभ्यता संस्कृति से संलग्न रहने पर कभी नष्ट नहीं होती। संस्कृति और सभ्यता - असली संस्कृति मानव की परिष्कृत भीतरी सद्भावना और नैतिक परिष्कार है और असली सभ्यता उसका बाहरी विस्तार है। संस्कृति की पूर्णता उसके सभ्यतापरक विकास में है। संस्कृति आत्मा है और सभ्यता उसका शरीर जब आत्मा के मूलगुणों के अनुसार शरीर का ( सभ्यता का विकास होता है तो मानव (व्यक्ति) और मानव जाति का जीवन सात्त्विक और सुखमय होता है। जब आत्मा के विपरीत सभ्यता अपना मनमाना (हिंसा, अपहरण, स्वार्थ आदि पर आधारित) विस्तार करती है, तब वह अशान्ति और दुःख का कारण बनती है। विश्वभर के युद्धों के मूल में यही सभ्यताओं की अहम्मन्यता की टकराहट है। वस्तुतः संस्कृति से सभ्यता का जन्म होता है और सभ्यता से संस्कृति का विस्तार होता है। स्पष्ट है कि ये दोनों अविभाज्य हैं और एक दूसरे की प्रेरक एवं पोषक हैं। आज का सांस्कृतिक संकट यह है कि विश्वभर में सभ्यतापरक (बाह्य-भौतिक) विकास बहुत तेजी से और बहुत अधिक हो रहा है। यह विकास ईर्ष्यामूलक स्पर्धा और शत्रुता से भरा हुआ है। प्रायः सभी देशों ने नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे दी है। एक दूसरे पर अपनी वरिष्ठता सिद्ध करने के लिए जघन्यतम हिंसक साधनों को अपनाया जा रहा है। भीतरी नैतिक गुणों से नाता टूट जाने पर सभ्यता ऐसी ही घातक हो जाती है वह अपनी मां की (संस्कृति की) हत्या भी कर देती है। चीन ने हमें चीनी (शक्कर), चीनी मिट्टी के बर्तन, पतंग, कागज, कंदील, छज्जेदार शेप, संतरा, कमरख लीची और आतिशबाजी देकर सम्पन्न बनाया। चीन के दार्शनिक भी हमारे महावीर और बुद्ध के समान प्रसिद्ध थे। दार्शनिक दृष्टि, मूर्तिकला, वास्तुकला और आध्यात्मिक साधना भारत ने सम्पूर्ण एशिया और यूरोप को दी। ज्योतिष, आयुर्वेद, अंक (१, २, ३, ४ आदि), दशमलव सिद्धान्त भी भारत ने सारे विश्व को दिया। पूरे आठ सी 3800 °°°ge ५१५ वर्षों तक लगभग आधे यूरोप पर अरबों का शासन रहा। अरबों का यूनानी वैद्यक का सिलसिला बेहद विकसित हुआ। भारत में मुगलों ने इसे बहुत अपनाया। यूरोप में इसका प्रभाव बीसवीं सदी के प्रारम्भ तक रहा। ईरान ने भारत को गुलाब जैसा फूल और अंगूर जैसा फल दिया। ईरान ने ही अतिथि सत्कार और दानशीलता के कीर्तिमान भी स्थापित किये मुस्लिम एकेश्वरवाद और भारतीय वेदान्त के मेल से सूफी धर्म तैयार हुआ काबा और काशी की एकता के गीत इसी भावभूमि का परिणाम हैं। सूमेरी धार्मिक कथाएँ, अक्षर लेखन कला और लटकते हुए बाग (हंगिग गार्डन) सुमेरी सभ्यता और संस्कृति की ही विश्व को देन है। सुमेरी सभ्यता से यहूदी सभ्यता ने और यहूदी सभ्यता से पूरे यूरोप ने बहुत कुछ सीखा है। समस्त यूरोप पर रोम का बोलवाला रहा है, पर रोम ने बहुत कुछ यहूदियों से लिया है। मिश्र की भी अद्भुत देन है। वहाँ की भवन-निर्माण-कला, पिरामिड और मीनारें आज भी अद्वितीय हैं। स्वेज नहर इसी देश ने ईसा से तेरह सौ वर्ष पहले बनवाई थी। इस नहर की सहायता से ही बड़े-बड़े जहाज लाल सागर और भूमध्य सागर तक जाते थे। अफ्रीका, एशिया और यूरोप को जोड़ने वाली यही नहर थी। यूनान ने कला दर्शन एवं साहित्य के क्षेत्र में विश्व को अनुपम ज्ञान दिया। अरस्तू को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का पिता कहा जाता है। मिश्र के सम्राट इखनातन की सादगी और त्याग का आदर्श संसार में आज भी अनुपम है। इखनातन ने ही देशों में मैत्री और सद्भाव का प्रचार किया। अनाक्रमण की नीति भी उसी ने अपनायी। अरब के खलीफा उमर की सादगी का आदर्श आज भी बेजोड़ है। जब पहली बार कांग्रेस का मंत्री मंडल बना था. तो गाँधी जी ने देश के नेताओं के समक्ष खलीफा उमर का आदर्श रखा था। खलीफा उमर का साम्राज्य रोम और यूनान के साम्राज्य से बड़ा था, फिर भी खलीफा मोटी खद्दर का कुर्ता पहनता था। प्रतिदिन अपने कंधे पर मशक भरकर गरीब विधवाओं को पानी देता था । आज वैज्ञानिक आविष्कारों (बिजली, तार, टी. वी., एक्सरे, अणुशक्ति आदि) ने हमारा जीवन ही बदल दिया है। क्या हम इसके लिए अमेरिका, रूस, फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी एवं जापान आदि देशों के आभारी नहीं हैं? क्या हम इस परिवर्तन से अछूते रह सके हैं। क्या विज्ञान ने हमारी जीवन-दृष्टि को प्रभावित नहीं किया है? " विश्व के इन कतिपय उदाहरणों से मानव रुचि स्वभाव एवं जिजीविषा की मूलभूत एकता ही प्रकट होती है। मानव का भावात्मक ऐक्य सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक है। प्रत्येक देश और जाति की सांस्कृतिक चेतना को इस सन्दर्भ में तो अवश्य ही समझा जाना चाहिए कि उसने मानव चेतना के ऊर्ध्वींकरण में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह दृष्टि समभाव पर आधारित हो न कि भेदभाव पर आत्म प्रशंसा और बलात् छिद्रान्वेषण से दूर रहकर ही ऐसा किया जा सकता है। इसी निष्कर्ष पर हम श्रमण संस्कृति की जैन धारा का मूल्यांकन कर सकते हैं। Geo
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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