SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 647
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर महात्मा गाँधी द्वारा प्रवर्तमान इस सर्वोदय सिद्धान्त को विनोबा भावे ने आगे बढ़ाया और भूदान, सम्पत्तिवान, ग्रामदान, समयदान, जीवनदानादि द्वारा सामाजिक विषमता को मिटाने का प्रयास किया गया। अपरिग्रह भी विषमता को मिटाकर समता की स्थापना करता है। अपरिग्रह और समाजवाद-पदार्थ उपभोग के लिए है, संग्रह के लिए नहीं। उपभोग के लिए कोई मनाही नहीं है। किन्तु जब पदार्थों का संग्रह व्यक्ति द्वारा आवश्यकता से अधिक किया जाता है तब समाज में विषमता की स्थिति बनती है। और जब विषमता की स्थिति सीमातिक्रान्त हो जाती है तब संघर्ष और हिंसा का प्रादुर्भाव होता है। ऐसे में मानव समाज दो विभागों में बंट जाता है-अमीर और गरीब शोषक और शोषित। अमीर-गरीब / शोषक-शोषित का संघर्ष युग-युगान्तर से चला आ रहा है और इसको मिटाने के लिए 'समाजवाद' की स्थापना भी की गयी। समाजवाद सिद्धान्त रूस से गतिशील हुआ। जिसमें समान हक की बात कही गयी और शोषित अपने हक की प्राप्ति के लिए संघर्ष के रास्ते हिंसा के मैदान में आ डटे। इसकी परिणति यह हुई कि समाजवाद एक हिंसक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया। समाजवाद की परिकल्पना का मूल भी 'अपरिग्रहवाद' ही रहा है। किन्तु जिस मार्ग का अवलम्बन समाजवाद ने लिया उस मार्ग का 7 प्रास्ताविक मानव जाति का संस्कृत (परिष्कृत) भावात्मक एवं रूपात्मक कृतिपुंज संस्कृति है। संस्कृति चिर विकासशील एवं अविभाज्य है। संस्कृति को सम्पूर्ण मानव जाति की समन्वयात्मकता एवं अखण्डता के फलक पर रखकर ही पूर्णतया समझा जा सकता है । सम्पूर्ण मानव जाति एक अविभाज्य इकाई है; उसे धर्म, भूमि और जाति आदि की संकीर्ण सीमा में रखकर आंशिक एवं भ्रामक रूप से ही समझा जा सकता है। अल्वर्ट आइन्स्टाइन का कथन है। कि, 'संस्कृति का पौधा अत्यन्त सुकुमार होता है। अनेक प्रयत्नों और सावधानियों के बाद ही वह किसी समाज में फूलता फलता है। उसके लिए व्यक्ति का अभिमान, राष्ट्र का अभिमान और जाति का अभिमान सबको तिलांजलि देनी पड़ती है। संस्कृति के अन्तर्गत मानव जाति का समग्र जीवन गर्भित है, परन्तु प्रमुख रूप से उसकी भावनात्मक एकता, नैतिक एवं कलात्मक जिजीविषा को स्थान Dain ५१३ 'अपरिग्रहवाद' निषेध करता है। अपरिग्रहवाद अहिंसक राह से समाजवाद की मंजिल पाने का निर्देश करता है। समतावादी समाज रचना पूँजीपति और शोषितों का जो संघर्ष है, वह है पदार्थों के परिग्रह को लेकर एक ओर जीवन के आवश्यक साधनों का ढेर लगता चला गया और दूसरी ओर अभावों की खाई निर्मित होती गयी। ऐसी स्थिति में जो संघर्ष की स्थिति बनती है, उससे शांति नहीं अपितु अशांति का ही निर्माण होता है। इंड/ संघर्ष की इस स्थिति में भी मनुष्य को अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। विवेक दीपक से विषमता का अंधकार नष्ट करके समता का प्रकाश फैलाना चाहिए। विवेक विकलता में विषमता नष्ट नहीं होती है अपितु और अधिक बढ़ती ही है। किन्तु जब समता का आंचल थाम लिया जाता है तब शांति की वर्षा होने लगती है। समता / समभाव अपरिग्रहवाद की पहली शर्त है क्योंकि समभाव के बिना 'अपरिग्रहबाद फल नहीं सकता। अनासक्त स्थिति समभाव से ही संभव है। अपरिग्रह समतावाद की स्थापना करता है। समतावादी समाज की संरचना से ही अपरिग्रहवाद फलता-फूलता है और मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय इन्द्र संघर्ष का विसर्जन होकर आनंद की बहार का सर्जन होता है। मानव संस्कृति के विकास में श्रमण संस्कृति (जैन धारा) की भूमिका - डॉ. रवीन्द्र जैन डी. लिट् दिया जाता है अतः स्पष्ट है कि संस्कृति मानव को ऊँचा उठाने वाली कृतियों का समन्वय है । " संस्कृति की परिभाषा प्रायः अंग्रेजी भाषा के कल्चर शब्द के पर्याय के रूप में संस्कृति शब्द समझा जाता है। जिस प्रकार एग्रीकल्चर अपनी भावात्मक एकता को प्राप्त कर कल्चर बन गया; अथवा कल्चर अपनी स्थूलता में एग्रीकल्चर बन गया हमारी भौतिक जिजीविषा भी अन्ततः परिष्कृत होकर कल्चर बनी। संस्कृति शब्द में भी कृषि या कृष्टि निहित है। बंगाल में कृष्टि शब्द का प्रयोग आज भी कृषि के लिए होता है। आशय यह है कि पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों में जो आत्यन्तिक स्थिति है वह एक ही है; वे मूलतः एक हैं। कालिक प्रभाव से पश्चिम ने यथार्थ, उपयोगिता एवं इहलौकिकता को अधिक महत्त्व दिया तो पौर्वात्य
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy