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________________ Post SDI 6000000000000000000 YD १५०२ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । स्वीकार करता है कि अणु का विखण्डन करने से अतुल ऊर्जा का लेश्याध्यान की साधना सिद्धगुरु के निर्देश से करनी चाहिए, स्फुरण होता है, उसी प्रकार वर्तमान क्षण की प्रेक्षा से अनन्त ज्ञान क्योकि वह ही भली प्रकार निर्णय दे सकता है कि किस व्यक्ति में का भण्डार खुल जाता है। पतंजलि की भाषा में ऋतम्भरा प्रज्ञा का | किस लेश्या की प्रधानता है। इसलिए उसे किस वर्ण की लेश्या से स्फुरण हो जाता है। यह प्रज्ञा (बोध) लोकोत्तर होती है, प्रत्यक्ष ध्यान प्रारम्भ करना चाहिए। सामान्यतः अत्यन्त अशुभ विचारों अनुमान इससे बनने वाले संस्कार पूर्व संस्कारों को समाप्त कर वाले, अकारण बिना किसी निज स्वार्थ सिद्धि अथवा लोकहित की अन्त में स्वयं भी विलीन हो जाती है। कर्मबन्ध का नाश हो जाता । संभावना के बहाने दूसरों को पीड़ा देने वाले व्यक्ति को कृष्ण लेश्या है, साधक के लिए मोक्ष का द्वार खुल जाता है। का मनुष्य समझना चाहिए और उसे काले रंग पर ध्यान करना लेश्या ध्यान-कर्म संस्कारों सहित आत्मप्रदेशों का स्पन्दन लेश्या चाहिए। स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों को अधिक हानि पहुँचाने वाले व्यक्ति को नील लेश्या का समझना चाहिए और उन्हें नीले रंग पर है। आत्मप्रदेश में यह स्पन्दन मोहनीय कर्मों के उदय, क्षयोपशम ध्यान करना चाहिए। स्वार्थसिद्धि के लिए कुछ हिचकते हुए दूसरों उपशम और क्षय के कारण होता है। यह स्पन्दन कषायों से को पीड़ा पहुँचाकर कार्यसिद्धि की कामना रखने वाले कापोत लेश्या उपरंजित होता है (कषायोदयारंजिता योगप्रवृतिः) सर्वार्थसिद्धि, वाले होते हैं। उन्हें कापोत वर्ण अथवा हरे रंग पर ध्यान करना २/६/१५९ [११]। ध्यान द्वारा इन कषायों का शोधन होता है। ये चाहिए। स्वार्थ हानि की सम्भावना न होने पर अर्थात् अपने स्वार्थ कषाय कर्मसंस्कार रूप हैं। कर्मसंस्कारों से भावों की सृष्टि होती है। की रक्षा करते हुए परोपकार, सेवा-सर्वजन हितकारी कार्य करने भाव सामान्यतः रूप और आकारहीन प्रतीत होते हैं, जबकि उनमें वाले व्यक्ति तेजोलेश्या वाले होते हैं, उन्हें लाल रंग से ध्यान वर्ण (रूप) होता है। यह रूप इतना सूक्ष्म होता है कि चर्म चक्षुओं साधना प्रारम्भ करनी चाहिए। अपनी स्वार्थ हानि करके भी से प्रायः नहीं दिखायी पड़ता। प्राचीन मनीषियों ने इस वर्ण का लोकोपकार करने वाले सत्पुरुष पद्मलेश्या वाले होते हैं। ऐसे साक्षात्कार किया था। इसी आधार पर सांख्यकारिका और व्यक्तियों को पीले रंग पर ध्यान करना चाहिए। सब कुछ लुटाकर उपनिषदों में सत्त्व, रजस् और तमस् इन गुणों को शुभ्र, लोहित स्वयं को संकट में भी डालकर दूसरों का हित करने वाले अथवा और कृष्ण वर्ण वाला माना गया है। दिव्य पुरुषों के शिर के पीछे सर्व समत्व की भावना में प्रतिष्ठित व्यक्ति शुक्ल लेश्या वाले पुरुष तेजोमय प्रभामण्डल की कल्पना भावों के रूप के आधार पर की हैं। उन्हें शुक्ल वर्ण पर ध्यान करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति ध्यान गयी है। आधुनिक विज्ञान ने भी विशेष फोटो कैमरा के माध्यम से प्रारम्भ करते ही समाधि में पहुँच जाते हैं। कुछ तो समाधि भाव में भावमण्डल के अनेक वर्गों के चित्र भी प्राप्त किये हैं। तात्पर्य यह है सदा रहते ही हैं। कि कर्मसंस्कारों से जीव में जो भाव (विचार) के रूप में स्पन्दन कृष्णवर्ण से लेकर पद्म (पीत) वर्ण तक सभी वर्गों में श्यामिता होता है, वह अनेक वर्ण का हुआ करता है। प्राचीन मनीषियों ने अवश्य रहती है। कृष्ण में सर्वाधिक, नील में कुछ कम, कापोत में अत्यन्त अशुभ भावों का वर्ण काला और अत्यन्त शुभ भावों का उससे कम, लाल में अल्प और पीले में अल्पतर, शुक्लवर्ण वर्ण शुभ्र माना है। इनके मध्य में अर्थात् श्याम से शुभ्र के बीच श्यामिता से रहित होता है। लेश्या के वर्ण को पहचानकर कृष्ण, नीलवर्ण, कापोत वर्ण, तेजोमय (लाल) पद्मवर्ण (पीला) ये चार वर्ण नील अथवा किसी वर्ण पर ध्यान प्रारम्भ करने वाला व्यक्ति क्रमशः और माने हैं। अर्थात् अत्यन्त अशुद्धतम भावों की लेश्या कृष्णवर्ण, अपने कर्मसंस्कारों में श्यामिता (कालुष्य) को क्षय करने का संकल्प अशुद्धतर की नील, अशुद्ध की कापोत वर्ण, शुद्ध की अग्निवर्ण लेता है, उसके लिए प्रयत्न करता है और उत्तरोत्तर संस्कार शुद्धि (लाल), शुद्धतर की पद्मवर्ण (पीली) और शुद्धतम की लेश्या शुभ्र करता हुआ कृष्ण को नील में, नील को कापोत में, कापोत को (शुक्ल) वर्ण की होती है। ये रंग इन लेश्याओं के पुद्गल लाल में, लाल को पद्म (पीले) में तथा पद्म को शुक्ल में परिवर्तन परमाणुओं के होते हैं। लेश्याध्यान में इन वर्गों का ही ध्यान किया करता है क्योंकि यह परिवर्तन कर्मसंस्कारों में होता है, इसलिए जाता है। बहुत मन्द होता है, देर लगती है। यदि रलत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, क्लिष्ट और अक्लिष्ट भावों की दृष्टि से भी इन लेश्याओं को सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की साधना साथ-साथ चलती है, तो देखा जा सकता है। क्लिष्ट भाव के तारतम्य के आधार पर दो । एक जन्म में ही अन्यथा एकाधिक जन्म में साधक शुक्ल ध्यान का और भेद होंगे-क्लिष्टतर और क्लिष्टतम। इसी प्रकार अक्लिष्ट अधिकारी हो जाता है। भावों के अक्लिष्टतर तथा अक्लिष्टतम दो अन्य भेद होंगे। इस । लेश्याध्यान-साधना के प्रसंग में जैन आचार्यों की मान्यता है कि प्रकार क्लिष्टतम, किलष्टतर, क्लिष्ट, अक्लिष्ट, अक्लिष्टतर और अत्यन्त सामान्य साधक कृष्ण लेश्या में ध्यान साधना करते हुए अक्लिष्टतम कुल छ: भेद होंगे। इन भावों से सम्बद्ध लेश्याएँ क्रमशः श्यामिता की निवृत्ति करके जब नील लेश्या की स्थिति में पहुँचता कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होंगी। इस । है, तो उसका स्वाधिष्ठान चक्र संयमित (जागृत) हो जाता है, उसे प्रकार लेश्याओं के वर्ण (रंग) विविध स्तरों में विद्यमान अशुभ शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का लाभ होता है, भूख पर अथवा शुभ और क्लिष्ट अथवा अक्लिष्ट कर्मसंस्कारों और उनके नियंत्रण हो जाता है, क्रूरता, हिंसात्मक प्रवृत्ति विलीन हो जाती है। कारण आत्मा में होने वाले स्पन्दनों के प्रतीक हैं। कापोत ध्यान तक पहुँचते-पहुँचते, उसके स्नायु पीड़ा की अनुभूति GEO Fo. 200 Car000 PARD H om e resources every 22082%000005DOD
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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