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________________ अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर आधुनिक विज्ञान में भी विकू में पदार्थ वितरित है और दो वस्तुओं के बीच जो दूरी है, वह ही दिक् है। इसी प्रकार 'परत्व' और 'अपरत्व' अर्थात् पहले और बाद में होना भी मूलतः काल के द्वारा ही प्रत्यक्षीकृत होता है। विज्ञान में पूर्व और पश्चात् का मापन गणितीय सूत्रों के द्वारा होता है। भाषिक व्यापार एवं चिंतन में भाषा के घटक जैसे क्रिया, संज्ञा, सर्वनाम, भूत वर्तमान और भविष्य परोक्ष रूप से दिक्-काल का निबंधन करते हैं क्रिया-पद मूलतः घटना का द्योतन करते हैं और इस प्रकार घटना और क्रिया का एक सापेक्ष सम्बन्ध होता है (देखे मेरा लेख "भाषा चिंतन में दिक्-काल सकितन, आलोचना ८३)| क्रिया एक तरह से कालवाचक स्थितियों (भूत, वर्तमान आदि) का ही संकेत है। ये घटनाएँ क्रियापदों द्वारा एक तार्किक व्यवस्था प्राप्त करती हैं। क्रिया का मूल गुण है गति और काल की वैज्ञानिक अवधारणा गति सापेक्ष है। इस प्रकार जैन-दर्शन में काल ही सारी क्रियाओं, घटनाओं तथा प्रक्रमों (प्रोसेस) का सहकारी तत्त्व है। यह एक ऐसा सत्य है जो विज्ञान, भाषा-चिन्तन और वैशेषिक चिंतन में किसी न किसी रूप में प्राप्त होता है। भर्तृहरि ने भाषिक स्तर पर क्रिया, घटना, काल और अंतरालों का जो विवेचन किया है, वह मेरी दृष्टि से वाक् शक्ति के वृहद एवं अर्थवान् रूप को प्रस्तुत करता है। इस बिन्दु पर आकर 'कालाणु' की धारणा पर विचार अपेक्षित है जो जैन-दर्शन की अपनी एक विशेष धारणा है। जैनदर्शन की मान्यता यह है कि काल असंख्य कालाणुओं से भरा है अर्थात् काल की 'संरचना' में कालाणुओं का संघात है। यह कालाणु एक बिन्दु है और वह भी आकाश या स्पेस में जिसे जैन चिन्तन में "प्रदेश” की संज्ञा दी गयी है। दिगम्बर परम्परा में (गोम्मटसार जीवकाण्ड) "एगपदेशो अणुस्सहते" तथा "लोकपदेशप्पमा कालो जैसे कथन इस बात को स्पष्ट करते हैं कि “लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक अणु स्थित है। इससे यह स्पष्ट होता है कि द्रव्य (पुद्गल) का एक-एक अणु प्रदेश में स्थित रहता है। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे "स्पेस प्वाईट" (दिक्-बिंदु) कहते हैं जो दिकू में पदार्थ के वितरण से सम्बन्धित है। यहाँ पर दिक् और काल का सापेक्ष सम्बन्ध है, उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। उपनिषद् की शब्दावली में कहें तो यह दिक्-काल का " युगनद्ध" रूप है। (स्टेडी आफ टाइम एण्ड स्पेस इन इंडियन बाट, के. मंडल, पृ. ३२) जहाँ तक काल का सम्बन्ध है जैन-आचायों ने एक महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध की ओर संकेत किया है, यह सम्बन्ध है काल और समय का। अक्सर हम काल और समय को पर्यायवाची मान लेते हैं जबकि जैन- दार्शनिकों ने इनके मध्य सूक्ष्म अंतर को स्पष्ट किया है। जैन-दर्शन में समय, आवलिका आदि काल के सूक्ष्म विभाग हैं। काल का सबसे छोटा अंश जिसका विखंडन संभव न हो सके, 'समय' कहा जाता है। असंख्यात समयों की एक आवलिका होती वह ४९७ है। असल में सूर्य-चंद्र ग्रह की गति के कारण इस काल को विभाजित किया जाता है जो काल का वह रूप है जिसे हम व्यावहारिक काल की संज्ञा देते हैं, इसे ही मानवीय काल कहा जा सकता है जिसके द्वारा हम काल या काल-खण्डों (भूत, वर्तमान, पल, घंटे आदि) का अनुभव या प्रत्यक्षीकरण करते हैं। जैनाचार्यों ने इस सूक्ष्मातिसूक्ष्म समय को समझाने के लिए रेशमी वस्त्र या साड़ी का उदाहरण दिया है। कोई भी दर्जी एक वस्त्र को एक ही बार में फाड़ डालता है, इस फाड़ने में जितना काल व्यतीत होता है. इसमें असंख्यात 'समय' बीत जाते हैं वस्त्र तंतुओं का बना होता है, अतः ऊपर का तंतु पहले और नीचे का तंतु बाद में विदीर्ण होता है। इस प्रकार, अनन्त तंतुओं का संघात होता है और अनंत संघातों का एक समुदाय। ऐसे अनंत समुदायों से तंतु का ऊपरी रूप बनता है। इस प्रकार छेदन क्रमशः होता है। इस छेदन में जितना समय लगता है, उसका अत्यन्त सूक्ष्म अंश अर्थात् असंख्यातवाँ भाग 'समय' कहलाता है। यदि गहराई से देखा जाएँ तो समय का इतना सूक्ष्म परिणाम बुद्धिग्राह्य नहीं है, लेकिन दूसरी ओर यह भी सत्य है कि आधुनिक विज्ञान ने आणविक कालमान के प्रयोग के द्वारा 'समय' का निर्धारण इतनी बारीकी से किया है कि उसमें त्रुटि की संभावना ३० हजार वर्षों में एक सेकेंड से भी कम है। इधर वैज्ञानिक हाइड्रोजन घड़ी भी विकसित कर रहे हैं जिसमें शुद्धता की त्रुटि की सम्भावना और भी कम हो जाएगी अर्थात् तीन करोड़ वर्षो के अंदर एक सेकेंड से भी कम अतः आणविक घड़ी नौ अरब उनीस करोड़ के लगभग भाग तक समय को संकेतित करने में सक्षम है। अतः असंख्यात समय की धारणा सत्य है। प्रसिद्ध विज्ञान- दार्शनिक इप्रिंगटन का मानना है कि "इस आणविक युग में एक मिनट का सौवाँ भाग मूलतः 'अनंतता' का द्योतक है।" यदि सौवाँ हिस्सा अनंतता का संकेत है तो उपर्युक्त असंख्यात समयों की स्थिति जो कहीं अधिक सूक्ष्म है, इसकी कल्पना की जा सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि जैन-दर्शन मे 'समय' की अवधारणा के द्वारा 'काल' के उस सूक्ष्म रूप की "गणना" का मार्ग प्रशस्त किया है जिसकी ओर विज्ञान और गणित क्रमशः अग्रसर हो रहे हैं। इसी गणना से सम्बंधित जैन-दर्शन में संख्येय और असंख्येय काल की गणना की गयी है जो काल सूर्य गति की सापेक्षता में मापा जाता है (यथा-दिन रात मुहूर्त, क्षण, युग आदि) वह लौकिक काल है जिसे संख्येय काल की संज्ञा दी गयी है । यह काल का राशि रूप भी है जिसके द्वारा विज्ञान में गणना की जाती है। दूसरा वह काल है जो गणना से परे है, उसे या तो रूपक या उपमान के द्वारा संकलित किया जाता है उसे असंख्येय काल कहा
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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