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________________ 90/500 00 Pod १४४६ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । व्यक्त होते थे। कठिन से कठिनतर विषय को भी आप सरस, १९९७ में दुन्दाड़ा ग्राम में संथारापूर्वक स्वर्गवास हुआ और वि. सं. सुबोध रीति से प्रस्तुत करते थे जिसे सुनकर श्रोता मन्त्रमुग्ध हो २000 में दयालचन्दजी महाराज साहब का गढ़ जालोर में जाते थे। आपश्री ने जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर, कोटा, ब्यावर, स्वर्गवास हुआ। पाली, शहापुरा, अजमेर, किशनगढ़, फलौदी, जालोर, बगहुँदा, आचार्यश्री के पाँचवें शिष्य कविवर नेमीचन्द जी महाराज थे। कूचामण, समदडी, पंचभद्रा प्रभृत्ति क्षेत्रों में वर्षावास किये। आप आपका विशेष परिचय अगले लेख में स्वतन्त्र रूप से दिया है। जहाँ भी पधारे वहाँ पर धर्म की अत्यधिक प्रभावना हुई। आपश्री के तीन शिष्य थे। सबसे बड़े वर्दीचन्द महाराज थे। वे ___आपश्री के मानमलजी महाराज, नवलमलजी महाराज, मेवाड़ के बगडुंडा गाँव के निवासी थे। आपने लघुवय में दीक्षा ज्येष्ठमलजी महाराज, दयालचन्द जी महाराज, नेमीचन्दजी ग्रहण की। वि. संवत् १९५६ में पंजाब के प्रसिद्ध सन्त मायारामजी महाराज, पन्नालालजी महाराज और ताराचन्दजी महाराज-ये सात महाराज मेवाड़ पधारे। कविवर नेमीचन्द जी महाराज के साथ शिष्य थे जो सप्तर्षि की तरह अत्यन्त प्रभावशाली हुए। उनका बहुत ही मधुर सम्बन्ध रहा। वर्दीचन्द जी महाराज की इच्छा आचार्य पूनमचन्दजी महाराज के प्रथम शिष्य मानमलजी मायारामजी महाराज के साथ पंजाब क्षेत्र स्पर्शने की हुई। कविवर्य महाराज थे। उनकी जन्मस्थली गढ़जालोर थी। वे लूणिया परिवार नेमीचन्दजी महाराज ने उन्हें सहर्ष अनुमति दी। वे पंजाब में पधारे। के थे। उन्होंने अपनी माँ और बहन के साथ आर्हती दीक्षा ग्रहण उनके शिष्य शेरे-पंजाब प्रेमचन्दजी महाराज हुए जो प्रसिद्ध वक्ता की थी। उनके शिष्य बुधमलजी महाराज थे, जो कवि, वक्ता और । और विचारक थे। उनकी प्रवचन-कला बहुत ही अद्भुत थी। जब वे लेखक थे। दहाड़ते थे तो श्रोता दंग हो जाते थे। आचार्यश्री के द्वितीय शिष्य नवलमलजी महाराज थे, जो एक कविवर्य नेमीचन्दजी महाराज के द्वितीय शिष्य हंसराजजी विलक्षण मेधा के धनी थे। किन्त आपका पाली में लघवय में ही महाराज थे। वे मेवाड़ के देवास ग्राम के निवासी थे और बाफना स्वर्गवास हो गया। परिवार के थे। ___ आचार्यश्री के तीसरे शिष्य ज्येष्ठमलजी महाराज थे जो महान आपकी प्रकृति बहुत ही भद्र थी। आप महान् तपस्वी थे, चमत्कारी थे। उनका परिचय स्वतन्त्र रूप से अगले पृष्ठों में दिया आपने अनेक बार साठ उपवास किये, कभी इकावन किये, कभी गया है। ज्येष्ठमलजी महाराज के दो शिष्य थे। प्रथम शिष्य मासखमण किये। वि. संवत् में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके नेणचन्दजी महाराज थे जो समदड़ी के निवासी और लुंकड़ परिवार | तीसरे शिष्य दौलतरामजी महाराज थे जो देलवाड़ा के निवासी थे के थे। आपका अध्ययन संस्कृत और प्राकृत भाषा के साथ आगम और आपका जन्म लोढा परिवार में हुआ था। आप जपयोगी साहित्य का बहुत ही सुन्दर था। आपकी प्रवचनकला चित्ताकर्षक सन्त थे। थी। आपश्री के द्वितीय शिष्य तपस्वी श्री हिन्दूमल जी महाराज थे। आचार्यश्री के छठे शिष्य पन्नालालजी महाराज थे। आप इनकी जन्मस्थली गढ़सिवाना में थी। इन्होंने अपने भरे-पूरे परिवार गोगुन्दा-मेवाड़ के निवासी थे। लोढा परिवार में आपका जन्म हुआ को छोड़कर दीक्षा ग्रहण की थी और जिस दिन दीक्षा ग्रहण की था। वि. संवत् १९४२ में आपने दीक्षा ग्रहण की थी। आपका गला उसी दिन से पाँच विगयों का परित्याग कर दिया और उसके साथ बहुत ही मधुर था। कवि नेमीचन्दजी और आप दोनों गुरुभ्राता जब ही उत्कृष्ट तप भी करते रहते थे और पारणे में वही रूखी रोटी मिलकर गाते थे तो रात्रि के शांत वातावरण में आपकी आवाज और छाछ ग्रहण करते थे। २-३ मील तक पहुँचती थी। आपश्री का स्वर्गवास मारवाड़ के आचार्यश्री के चतुर्थ शिष्य दयालचन्दजी महाराज थे। आप राणावास ग्राम में हुआ। आपके सुशिष्य तपस्वी प्रेमचन्दजी महाराज मजल (मारवाड़) के निवासी थे। मुथा परिवार में आपका जन्म थे जो उत्कृष्ट तपस्वी थे। भीष्म ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की चिलचिलाती हुआ था। नौ वर्ष की लघुवय में पूज्यश्री के पास वि. संवत् १९३१ धूप में आप आतापना ग्रहण करते थे और जाड़े में तन को कँपाने में गोगुन्दा (मेवाड़) में दीक्षा ग्रहण की। आपका स्वभाव बड़ा ही वाली सनसनाती सर्दी में रात्रि के अन्दर वे वस्त्रों को हटाकर मधुर था। आपके हेमराजजी महाराज शिष्यरल थे जिनकी शीत-आतापना लेते थे। आप आगम साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे। जन्मस्थली पाली-मारवाड़ थी। आप जाति से मालाकार थे। आपने वि. संवत् १९८३ में मोकलसर ग्राम में आपका स्वर्गवास हुआ। वि. सं. १९६० में दीक्षा ग्रहण की थी।आप ओजस्वी वक्ता थे। आपके सुशिष्य उत्तमचन्दजी महाराज थे जो मेवाड़ के कपासन ग्राम आपका गंभीर घोष श्रवण कर श्रोता झूम उठते थे। आपका स्वभाव । के सन्निकट एक लघु ग्राम के निवासी थे। आप जाति के मालाकार बहुत ही मिलनसार था। आपश्री ने गढ़जालोर में एक विराट थे। वि. सं. १९५६ में आपने दीक्षा ग्रहण की। आप आगम साहित्य पुस्तकालय की संस्थापना की थी। पर, खेद है कि श्रावकों की व थोकड़े साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे। आपकी प्रकृति बहुत ही भद्र पुस्तकों के प्रति उपेक्षा होने से वे सारे बहुमूल्य ग्रन्थ दीमकों के थी। आपका प्रवचन मधुर होता था। वि. संवत् २000 में उदर में समा गये। पंडित मुनिश्री हेमराज महाराज का वि. सं. मोकलसर ग्राम में आपका स्वर्गवास हुआ। आपश्री के दो शिष्य थे 00000000000% Jain Education International aswww.jainelibrary.org, For Private Personal use only
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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