SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 561
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिहास की अमर बेल गयी थी। अतः आचार्यप्रवर सुजानमलजी महाराज ने योग्य समझकर १८३४ में माँ के साथ बालक जीतमल को दीक्षा प्रदान की और उनका नाम जीतमुनि रख दिया गया। बालक जीत मुनि ने गम्भीर अध्ययन प्रारम्भ किया। संस्कृत, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं का अध्ययन किया। आगम, दर्शन, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, मंत्र-तंत्र और आयुर्वेद शास्त्र का भी गहराई से अध्ययन किया। उनकी लिपि बहुत ही सुन्दर थी। वे दोनों हाथों और दोनों पैरों से एक साथ लिख सकते थे। प्राचीन प्रशस्तियों के आधार से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने तेरह हजार ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ की थीं। स्थानकवासी परम्परा मान्य बत्तीस आगमों को उन्होंने बत्तीस बार लिखा था। आपके द्वारा लिखित एक आगम बत्तीसी जोधपुर के अमर जैन ज्ञान भण्डार में उपलब्ध है और कुछ आगम उदयपुर तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल, के संग्रहालय में हैं। आपके द्वारा लिखित नौ आगम बत्तीसी आपके सम्प्रदाय की साध्वियाँ चम्पाजी जो अजमेर में लाखन कोठड़ी में अवस्थित (चम्पाजी का स्थानक) स्थानक में स्थानापन्न थीं, उनके पास रखी गयी थीं। पर परिताप है कि स्थानकवासी समाज की साहित्य के प्रति उपेक्षा होने के कारण वे नौ बत्तीसियाँ और हजारों ग्रन्थ कहाँ चले गये, आज उसका कुछ भी पता नहीं है। जैन श्रमण होने के नाते से सारा साहित्य जो आपने लिखा था वह गृहस्थों के नेश्राय में कर देने से और उनकी, साहित्य के प्रति रुचि न होने से नष्ट हो गया है। उन्होंने उर्दू-फारसी में भी ग्रन्थ लिखे थे, उसमें से एक ग्रन्थ अभी विद्यमान है। एक फारसी के भाषा-विशेषज्ञ को हमने वह ग्रन्थ बताया था। उसने कहा यह बड़ा ही अद्भुत ग्रन्थ है, इस ग्रन्थ में महाराजश्री ने अपने अनुभूत अद्भुत प्रयोग लिखे हैं इस ग्रन्थ को देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि महाराजश्री का ज्ञान बहुत ही गहरा था। एक जैन श्रमण विविध विषयों में कितनी तलस्पर्शी जानकारी रख सकता है इससे स्पष्ट होता है। यह ग्रन्थ ज्ञान का अद्भुत भण्डार है। आप कुशल कवि भी थे। आपने अनेक ग्रन्थ कविता में भी बनाये हैं। चन्द्रकला रास यह आपकी एक महत्वपूर्ण रचना है जो आपश्री के हाथ से लिखा हुआ है। उसके अठारह पन्ने हैं प्रत्येक पन्ने में सत्रह पंक्तियाँ हैं और सूक्ष्माक्षर हैं। ग्रन्थ में लेखक ने अपना नाम नहीं दिया है और नाम न देने का कारण बताते हुए उसने लिखा है "हूँ मतिमन्द बालकवत कीधो, हुकम सामियां दीघो रे । लोपी जे मर्याद प्रसिद्धो, मिच्छामि दुक लीधो रे ॥ अर्थात्, आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज की परम्परा में उस समय ऐसा नियम बनाया गया था कि कविता आदि न लिखी जाय क्योंकि कवि को कभी-कभी अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन भी करना पड़ता है और उस वर्णन से सत्य महाव्रत में दोष लगने की संभावना है। अतः कवि ने कविता लिख करके भी अपना नाम नहीं दिया। Jain Education International ४३९ सम्भव है, जीतमलजी महाराज से पूर्व भी आचार्य प्रवरों ने तथा अन्य मुनिगणों ने कविताएँ आदि लिखी हों पर नाम न देने से यह पता नहीं चलता कि ये कविताएँ किन की बनाई हुई हैं। आपका द्वितीय ग्रन्थ शंखनृप की चीपाई है। यह चार खण्डों में विभक्त है। इसमें छत्तीस ढालें हैं और बाईस पन्ने हैं। ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति में कवि ने लिखा है सम्मत अठारे चोपने, जेठ वद बारस दिन में रे। नगर बालोतरा भारी, रिष जीत भणे सुखकारी रे। आपकी तृतीय रचना कौणिक संग्राम प्रबन्ध है। इस प्रबन्ध में सत्तावीस ढालें हैं और दस पन्ने हैं और प्रत्येक पन्ने में चौदह पंक्तियाँ हैं और सूक्ष्माक्षर हैं। उसके अन्त में प्रशस्ति में लिखा है एम सुणी ने चेतजाए, लोभ की मन वाल सेंठा रह जो सन्तोष में ए, भयो जीत रसाल ॥ एक बार आचार्यश्री जीतमलजी महाराज जोधपुर राज्य के रोइट ग्राम में विराज रहे थे। उस समय साम्प्रदायिक वातावरण था और उस युग में एक दूसरे की आलोचना प्रत्यालोचना की जाती थी। उस समय के ग्रन्थ इस बात की साक्षी हैं। रात्रि का समय था ! तेरह पन्थ के चतुर्थ आचार्य जीतमलजी भी वहाँ आये हुए थे और आपकी भी वहाँ पर विराज रहे थे। आपने उस समय उनके दयादान के विरोध में एक लघु-काव्य का सृजन किया जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं छांड रे जीव पत पात पाखण्डली, समकीत रहत नहीं मूल बाकी । देव गुरु धर्म उत्थापियो पापियाँ, नागडा दीघो छे खोय नाकी ॥ साधु मुख सांभली वाणी सिद्धान्त री सावण में जवासी जेम सूखे। नाम चर्चा से लिया थका नागड़ा, सिंयालिया जेम दिन रात रुके ॥ आपकी पाँचवीं रचना पूज्य गुणमाला प्राप्त होती है। आचार्यश्री तुलसीदासजी महाराज के गुणों का उत्कीर्तन करते हुए अन्त में लिखा है संमत अठारें वर्ष गुणचासे, माहवद आठम भारी जी। शहर जोधाणे जोड़ी जुगत सु, थे सुणजो सहु नर नारी जी ॥ आचार्यश्री सुजानमल जी महाराज के गुणों पर प्रकाश डालते हुए भी अन्त में उन्होंने लिखा है म्हारा गुरां रा गुण कहूँ किस्या, म्हारा दिल में तो म्हारा गुरु जी बस्या । जोडी जुगति सु ढाल हरसोर ग्रामी, मने, वल्लभ लागे सुजाण जी स्वामी ॥ संमत अठारे वर्ष पचासे, पूज जीतमल तो इम भाषे । वद फागुण शुक्ल तिथि छट्ट पामी ॥ मनें वल्लभ लागे...........॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org 31040
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy