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________________ २०800002900000 8500 1 ४३० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । गये तो यति समुदाय की ओर से बीकानेर से विमलविजयजी, काष्ठ की पट्टी बाँधने का विधान अन्यत्र देखने में नहीं आया है। जोधपुर से ज्ञानविजयजी, मेड़ता से प्रभाविजयजी और नागोर से। इससे यह सिद्ध होता है जैन श्रमण मुँहपत्ती बाँधते ते और उसी का जिनविजयजी ये चार मेधावी यति शास्त्रार्थ के लिए उपस्थित हुए। । अनुसरण सोमिल ने काष्ठ पट्टी बाँध कर किया हो। विविध विषयों पर शास्त्रार्थ हुआ। आचार्यश्री ने जब मुखवस्त्रिका भगवती में३८ जमाली के दीक्षा ग्रहण करने के प्रसंग में नाई का का प्रश्न आया तब कहा कि-आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर उल्लेख है, उसने भी आठ परतवाली मुँहपत्ती मुँह पर बाँधी थी। मुखवस्त्रिका का उल्लेख है। उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी विभाग में बताया गया है कि "मुहपोत्तियं पडिलेहत्ता पडिलेहिज्ज गोच्छगं''३१ शिवपुराण ज्ञानसंहिता में३९ जैन श्रमण का लक्षण बताते हुए अर्थात् मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर गोच्छग की प्रतिलेखना करें। कहा है-हाथ में काष्ठ के पात्र धारण करने वाले, मुँह पर निशीथ भाष्य३२ में जिनकल्पिक श्रमणों का उल्लेख है वहाँ पर मुखवस्त्रिका बाँधने वाले, मलिन वस्त्र वाले, अल्पभाषी ही जैन मुनि पाणिपात्र और पात्रधारी ये दो भेद किये हैं। दोनों ही प्रकार के है। उसमें यह भी बताया गया है कि इस प्रकार के जैन श्रमण श्रमण कम से कम मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये दो उपधि रखते ऋषभावतार के समय में भी थे। हैं। जिनकल्पिक श्रमणों के लिए भी मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये श्रीमाल पुराण में४0 मुँह पर मुँहपत्ती धारण करने वाले जैन दो आवश्यक है, अन्य उपकरण चाहे हों या न हों। फिर श्रमणों का वर्णन है। साथ ही भुवनभानु केवली चरित्र, हरिबल स्थविरकल्पिकों के लिए तो मुखवस्त्रिका अनिवार्य है ही। मच्छीनु रास, अवतार चरित्र, सम्यक्त्वमूल बारहव्रत की टीप, भगवती सूत्र में३३ स्पष्ट कहा है कि जब खुले मुँह बोला जाता हितशिक्षार्नु रास, जैनरलकथाकोश, ओघनियुक्ति आदि में है तब सावध भाषा होती है। मुखवस्त्रिका का वर्णन है। महानिशीथ जिसे स्थानकवासी परम्परा प्रमाणभूत आगम नहीं आचार्यप्रवर के अकाट्य तर्कों से यति समुदाय परास्त हो गया। मानती है उसमें भी यह विधान है कि कान में डाली गयी मुँहपत्ती के वह उत्तर न दे सका। वहाँ से वे लौट गये। स्थानकवासी धर्म की बिना या सर्वथा मुँहपत्ती के बिना इरियावही क्रिया करने पर साधु पाली में प्रबल प्रभावना हुई। वहाँ से आचार्यप्रवर ने जोधपुर की को मिच्छामि दुक्कडं या दो पोरसी का (पूर्वार्द्ध) दण्ड आता है।३४ ओर प्रस्थान किया। जब आचार्यप्रवर जोधपुर पधारे उस समय दीवान खींवसीजी भण्डारी ने आचार्यप्रवर का हृदय से स्वागत किया योगशास्त्र३५ में भी कहा है मुख से निकलने वाले उष्ण स्वास से और आचार्यप्रवर को तलहटी के महल में ठहरा दिया। राजकीय वायुकाय के जीवों की तो विराधना होती है किन्तु त्रस जीवों के मुख कार्य से खीवसीजी बाहर चले गये, तब यतिभक्तों ने सोचा कि किसी में प्रवेश की भी सम्भावना सदा रहती है तथा अकस्मात् आयी हुई तरह से अमरसिंहजी महाराज को खत्म करना चाहिए। खाँसी, छींक आदि से यूँक शास्त्रों या कपड़ों पर गिरने की सम्भावना रहती है, अतः मुखवस्त्रिका इन सभी का समीचीन उपाय है। दुष्चक्र बना धर्मचक्र ___आगम साहित्य में यत्र-तत्र मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधने का __ यतिभक्तों ने सोचा कि ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे विधान प्राप्त होता है। जैसे ज्ञातासूत्र३६ में तेतली प्रधान को उसकी आचार्यश्री सदा के लिए खत्म हो जायें। जोधपुर में आसोप ठाकुर धर्मपत्नी अप्रिय हो गयी तो वह दान आदि देकर समय व्यतीत साहब की एक हवेली है जहाँ पर ठाकुर राजसिंह जोधपुर नरेश के करने लगी। उस समय तेतलीपुर में महासती सुव्रताजी का आगमन बदले में जहर का प्याला पीकर मरे थे। वे व्यन्तर देव बने थे। वे हुआ। वे भिक्षा के लिए तेतली प्रधान के घर पर पहुँची, तब तेतली रात्रि में अपनी हवेली में किसी को भी नहीं रहने देते थे। यदि कोई प्रधान की अप्रिय पत्नी पोट्टिला ने साध्वीजी को आहारदान दिया भूल से रह जाता तो उसे वे मार देते थे। अतः यतिभक्तों ने सोचा और उसके पश्चात् उसने साध्वीजी से पूछा-आप अनेकों नगरों में कि ऐसे स्थान पर यदि आचार्य अमरसिंहजी को ठहरा दिया जाय तो परिभ्रमण करती हैं कहीं पर ऐसी जड़ी-बूटी या वशीकरण आदि वे बिना प्रयास के समाप्त हो जायेंगे। उन्होंने महाराज अजितसिंह से. मन्त्र के उपाय देखे हों तो बताने का अनुग्रह कीजिए जिससे मै प्रार्थना की-राजन् आप जिस महल के नीचे होकर परिभ्रमण करने पुनः अपने पति की हृदयहार बन जाऊँ। यह सुनते ही महासतीजी के लिए जाते हैं, उस महल के ऊपर अमरसिंहजी साधु बैठे रहते हैं। ने अपने दोनों कानों में दोनों हाथों की अंगुलियाँ डाल दी और वे आपको नमस्कार भी नहीं करते। हमसे आपका यह अपमान देखा कहा-भो देवानुप्रिये! हमें इस प्रकार के शब्द कानों से सुनना भी नहीं जाता। राजा ने कहा-साधु फक्कड़ होते हैं। वे नमस्कार नहीं नहीं कल्पता फिर ऐसा मार्ग बताना दो दूर रहा। इस वर्णन से यह करते तो कोई बात नहीं है। यतिभक्तों ने मुँह मटकाते हुए कहास्पष्ट है कि साध्वीजी के मुँह पर मुखवस्त्रिका बाँधी हुई होनी राजन्! आप बड़े हैं, पृथ्वीपति हैं, आपको तो नमस्कार करना ही चाहिए नहीं तो दोनों हाथ दोनों कानों में डालकर खुले मुँह कैसे चाहिए। यदि आपश्री को कोई एतराज न हो तो हम आचार्यश्री को बोलती? निरयावलिका३७ में उल्लेख है सोमिल ब्राह्मण ने काष्ठ की दूसरा बहुत ही बढ़िया स्थान बता देंगे। दरबार ने कहा-जैसी तुम्हारी मुँहपत्ती मुँह पर बाँधी थी। वैदिक परम्परा के संन्यासियों में मुँह पर इच्छा। यतिभक्त आचार्यश्री के पास आये और कहा कि महाराज Jain Education International 900RFORPrivate a personal use only:0 0.000 0 0 00000www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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