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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर भावना लोक की सबसे बड़ी शक्ति है श्रद्धा! जहाँ, जब जिस के प्रति श्रद्धा जगती है तो एक अलौकिक समर्पण भाव उत्पन्न होता है। एक आत्मा की अश्राव्य ध्वनि तरंगों का स्पन्दन दूसरी आत्मा को स्पन्दित कर देता है। मेरे श्रद्धा लोक के देवता एक अनिर्वचनीय आकर्षण एक-दूसरे को प्रगाढ़ रूप में बाँध देता है। अमाप्य असीम दूरी भी अत्यन्त समीपता में बदल जाती है। सूर्योदय होते ही कमल खिल उठते हैं। चन्द्रोदय होने पर चातक पक्षी पीयूष-रश्मियों का पान कर पुलकता हुआ अंगारों को भी हिम-खण्ड की भाँति निगल जाता है। मूर्च्छित निस्पन्द चेतना भी शक्ति स्फूर्त होकर प्रचण्ड हुंकारें भरने लगती है। पंगु सुमेरू शिखर पर चढ़ जाता है। जन्म से चक्षु विहीन सूरदास आराध्य की दिव्यातिदिव्य सुरम्य छवि का आत्म-साक्षात्कार करने लगता है। मूक मानव सुरगुरु की भाँति धारा प्रवाह बोलने लगता है। संसार में जो कुछ असंभव लगता है, वह सब संभव हो जाता है- श्रद्धा के बल से । इसलिए कहा है-श्रद्धा में है असीम अनन्तबल । आदर, सन्मान, सद्भाव, प्रतिष्ठा यह सब शब्द सरोवर की छिछली तरंगों जैसे, एक सामान्य अर्थ के द्योतक है। श्रद्धा असीम है। महासागर की तरंगों की भाँति उसके ओर-छोर को कोई पहचान नहीं पाता, पकड़ नहीं पाता। असीम अर्थ है उसमें असीम शक्ति है। उसके असीम वाच्यार्थ हैं। श्रद्धा सम्यग्दर्शन का अंग है। साधना मार्ग का प्रथम सोपान है। देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धा है-सम्यग्दर्शन ! श्रद्धा सचेतन होती है उसमें आत्मा की अनुभूति स्फुरित होती है, इसलिए श्रद्धा कभी अंधी नहीं हो सकती। जिसे हम अंध श्रद्धा कहते हैं, वह श्रद्धा नहीं, अज्ञानजनित आवेग है। मोह का उद्वेग है अज्ञान श्रद्धा विष है, अंधगर्त है। ज्ञानयुक्त श्रद्धा अमृत है। हिम शिखर का आरोहण है। नंदन वन का आनन्द विहार है। KOMER X श्रद्धा के तीन आधेय है-देव, गुरु, धर्म | इनका मध्य केन्द्र है गुरु । गुरु की महिमा का पार सद्गुरु भी नहीं पा सकते। internationals ३ -आचार्य देवेन्द्र मुनि गुरु की यशोगाथा गाने के लिए सरस्वती का शब्द भंडार भी कम पड़ जायेगा। गुरु इसलिए गुरु नहीं है कि वह महान् है, भारी है, किन्तु अंध मानव को चक्षु प्रदान करते हैं। लघु में गुरुता का दीप जलाकर उसे प्रभास्वर बना देते हैं। दीपक को सूरज बना देते हैं गुरु! शास्त्र में 'चक्रवुदयाणं, 'मग्ग दयाण' विशेषण हैं जो वास्तव में गुरु की गुरुता के बोधक हैं। गुरु देव हैं, गुरु धर्म है, गुरु ज्ञान है, गुरु चारित्र है, इसलिए गुरु के प्रति आस्था सम्यक् श्रद्धा है। गुरु के प्रति कृतज्ञ भक्ति, समर्पण, गुरु का स्मरण, गुरु का संकीर्तन, मनुष्य को गुरुता के पथ पर अग्रसर करता है। गुरु के प्रति श्रद्धापूर्ण दो शब्द सुमन समर्पित करने में शिष्य को जो अनिर्वचनीय आनन्द, आत्म-तुष्टि और असीम आत्मोल्लास की अनुभूति होती है, वही शिष्य की आत्मसंपत्ति है। शिष्य का शिष्यत्व तभी कृतार्थ होता है जब वह अहोभावपूर्वक गुरु के उपकारों का स्मरण करता हुआ उनकी स्मृतियों में स्वयं को तन्मय कर देता है। गुरु के साथ, गुरु की आत्मा के साथ शिष्य की अभेदानुभूति है। शंकर का 'अद्वैत' है महावीर का निश्चय नय है। आज के इन पावन क्षणों में गुरुदेव के उपकारों की स्मृति मेरे रोम-रोम में मुखरित हो रही है। रोम-रोम उत्कंचित होकर गा रहे हैं धन्य गुरुदेव ! अहो गुरुदेव ! आप दूर होकर भी मुझ में स्थित हैं। आपके गुणों की, आपकी सद्भिक्षाओं की ज्योति ही मेरी जीवन ज्योति है, उस ज्योति के समक्ष संसार की समस्त ज्योतियों का प्रकाश मन्द है। पुष्प के विलय के बाद भी पुष्प की सुवास मिट्टी में महकती रहती है। पवन को प्रीणित करती रहती है। गुरुदेव के गुणों का सौरभ, उपकारों का आत्म-संवेदन जन्म-जन्म तक मुझे प्रीणित और परिपुष्ट करता रहेगा। गुरु ऐसा दिव्य दीपक है, जिसकी माटी की देह-दीवट बिखर जाने के बाद भी उसकी ज्ञान रश्मियाँ आलोक वर्तिका बनकर हजारों-हजार पथिकों का पथ उजालती रहती हैं, आलोकित करती रहती है ! गुरुदेव की ज्योति सघन अन्धकार के घनघोर क्षणों में भी मुझे ज्योतिर्मय बनाती रहती है। संकटों से कंपा देने वाले प्रखर पलों में भी उनकी स्मृति मुझे अमिट शक्ति, अमिट साहस और अपराजेय विश्वास देती रहेगी। यही है मेरी श्रद्धा का ध्रुव बिन्दु। गुरु की अखण्ड, अविचल श्रद्धा ही मेरी अनन्त शक्ति का स्रोत है और वही शक्ति का सम्बल मेरे रोम-रोम में जागृत हो रहा है। X X X Por Private & Personal Use o Mabelibrary
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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