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________________ R00 १४२४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । श्रावकसंघ में आये हुए शिथिलाचार और भ्रष्टाचार पर आप केसरी एक बार आपश्री पटियाला विराज रहे थे। पटियाला सिखों का सिंह की तरह झपटते थे। आपकी वाणी में ओज था, सत्य का तेज प्रमुख केन्द्र था। आपके प्रवचन में कुछ सिख सरदार प्रतिदिन आया था और विवेक का विशुद्ध प्रकाश था। अतः जिस विषय पर करते थे। मध्याह्न के समय एक सिख सरदार आया। उसकी आँखों आपश्री बोलते, साधिकार बोलते और सफलता देवी आपके चरण से आँसू टपक रहे थे। चेहरा उदास था। आपश्री ने उसकी उदासी चूमने के लिए सदा लालायित रहती थी। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, का कारण पूछा। उसने कहा-गुरुजी! मेरे एक ही लड़का है। रात अरबी, फारसी इन छह भाषाओं पर आपने पूर्ण अधिकार प्राप्त कर को वह बिल्कुल ठीक सोया था, पता नहीं उसकी नेत्र ज्योति कैसे लिया था और आप साधिकार छह भाषाओं में लेखन, भाषण कर गायब हो गयी। उसे कुछ भी नहीं दीखता है। अभी तो वह बच्चा सकते थे। आपने अनेक साधु-साध्वियों, श्रावक और श्राविकाओं को ही है। मैंने हकीमों और वैद्यों को आँख बतायी। उन्होंने कहा कि शास्त्रों का अध्यापन करवाया। आप मानवरूप में साक्षात बहती हई। अब रोशनी नहीं आ सकती। यह कहकर उसकी आँखें डबडबा ज्ञानगंगा थे। जिधर भी वह ज्ञानगंगा प्रवाहित हुई उधर अध्ययन, गयीं, गला भर आया। महाराजश्री ने कहा-बताओ, तुम्हारा लड़का मनन-चिन्तन के सूखे और उजड़े हुए खेत हरे-भरे हो गये। कहाँ है? सरदार ने कहा-गुरुदेव! मैं अभी जाकर उसे ले के आता हूँ। गुरुदेवश्री ने बच्चे को मंगल पाठ सुनाया कि लड़का पहले से प्रखर ज्ञान-साधना भी अधिक स्पष्ट रूप से देखने लगा। सरदार जी चरणों में गिर अमरसिंह जी महाराज का आगम और दर्शनशास्त्र का ज्ञान पड़े, और उनकी हत्तन्त्री के तार झनझना उठे-अमरसिंहजी बहुत ही गम्भीर था। आपके सम्बन्ध में लिखी हुई अनेक अनुश्रुतियाँ महाराज देवता ही नहीं, साक्षात् भगवान हैं। मुझे प्राचीन पत्रों में मिली हैं। एक बार आपश्री जम्मू में विराज रहे एक बार अमरसिंहजी महाराज रोहतक विराज रहे थे। उस थे। श्रावक समुदाय आपके सन्निकट बैठा हुआ चर्चा कर रहा था। समय एक युवक आया। वह पारिवारिक संक्लेशों से संत्रस्त था। उस समय कुछ बहनें सुमधुर गीत गाती हुई जा रही थीं। वह आत्महत्या करने का संकल्प लेकर ही घर से चला था। किन्तु अमरसिंहजी महाराज कुछ समय तक रुक गये। वार्तालाप के प्रसंग आपश्री के मधुर वार्तालाप से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि में उन्होंने बताया गाने वाली बहनों में एक बहन जिसका स्वर इस / सदा के लिए उसने क्रोध का परित्याग कर दिया। उसका प्रकार का था उसका रंग श्याम है उसकी उम्र पच्चीस वर्ष की है पारिवारिक जीवन जो विषम था, जिसमें रात-दिन क्रोध की और वह एक आँख से कानी है। महाराजश्री ने उस बहन को देखाचिनगारियाँ उछलती रहती थीं, आपश्री के सत्संग से उस परिवार नहीं था और न वह पूर्व परिचिता ही थी। अन्य बहनों के सम्बन्ध में में स्नेह की सरस सरिता प्रवाहित होने लगी। इस प्रकार की अनेक भी उन्होंने वय, रंग और उम्र बतायी। लोगों को बहुत ही आश्चर्य घटनाएँ आपके पंजाब प्रवास के समय की मिलती हैं जो हुआ। उन्होंने शीघ्र ही जाकर जाँच की तो उन्हें सत्य तथ्य का विस्तारभय से यहाँ नहीं लिखी जा रही हैं। परिज्ञान हो गया। श्रावकों ने पूछा-गुरुदेव, आपको कैसे पता लगा? I अमरसिंहजी महाराज प्रकाण्ड पण्डित, प्रभावक, प्रवचनकार आपश्री ने फरमाया स्थानाङ्ग, अनुयोगद्वार आदि आगम साहित्य में और यशस्वी साधक थे। आपश्री को जैन-अजैन जनता में सर्वत्र स्वरों का निरूपण है, उसी के आधार पर मैंने कहा है। उन्होंने केवल एक दिव्य महापुरुष जैसा सत्कार, सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त होती शास्त्र पढ़े ही नहीं थे किन्तु उन शास्त्रों को हृदयंगम भी किया था। थी तथापि आपश्री के अन्तर्मानस में गुरुवर्य के प्रति अटूट श्रद्धा व भक्ति थी। उनके लिए आचार्य लालचन्दजी महाराज एक व्यक्ति नहीं साधना के चमत्कार किन्तु आदर्श थे। वे उनके प्रति समर्पित थे। समर्पण विनिमय के एक बार आपश्री लुधियाना विराज रहे थे। उस समय एक लिए नहीं होता, किन्तु जहाँ पर समर्पण होता है वहाँ विनिमय सज्जन घबराते हुए आये कि गुरुदेव शीघ्र ही मांगलिक फरमा। स्वतः ही हो जाता है। आचार्य लालचन्दजी महाराज के मन में दीजिये। मुझे आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाना है। विलम्ब हो अमरसिंह मुनिजी के प्रति पूर्ण विश्वास था। एक दिन किसी सन्त ने गया है। मुनि अमरसिंहजी ने कहा-क्यों शीघ्रता करते हो, एक आचार्य लालचन्दजी महाराज से कहा कि अमरसिंह जी प्रतिलेखना सामायिक कर लो। किन्तु श्रावक के मन में दृढ़ता कहाँ थी? उसने सम्यक् प्रकार से नहीं करते हैं। आचार्य लालचन्दजी महाराज ने आपश्री के कथन की उपेक्षा की और बिना मांगलिक सुने ही चल बिना अमरसिंहजी को पूछे ही दृढ़ता के साथ कहा कि वह तुम्हारे दिया। मार्ग में सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और हथकड़ियाँ से श्रेष्ठ करता हैं। विश्वास उसी का नाम है जिसमें किसी भी डालकर कारागृह में बन्द कर दिया। जब वह न्यायाधीश के सामने प्रकार का संशय नहीं होता। उपस्थित किया गया तब न्यायाधीश ने कहा-मैंने इन सेठजी को अमरसिंहजी मुनि प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, स्वाध्याय आदि नहीं किन्तु इनका नामराशि जो स्वर्णकार है उसे बुलाया था। तुमने । आचार्य लालचन्दजी महाराज के पास बैठ करके ही करते थे, अतः व्यर्थ ही सेठजी को परेशान किया। क्षमायाचना कर सेठजी को वे अमरसिंह मुनि की चर्या से पर्याप्त रूप से परिचित थे। उनके विदा किया गया। तब सेठजी को ध्यान आया कि महाराजश्री की । प्रति उनका आत्मीय भाव दिन प्रतिदिन बढ़ रहा था। उनकी कृपा आज्ञा की अवहेलना करने का क्या परिणाम होता है। उन पर अत्यधिक थी। GDP COMडाला 0 0 5. 0 D DCFor Private JanEducation internationaEDOE0000 DO Personal use Only095 OOODwivr.jaineliterary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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