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________________ 3300-36 00200 16:02PORae3090000000000 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । काव्य-सुमन की सौरभ 500 न hi (पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी एक सहज कवि थे। उनकी वाणी में कबीर सी फक्कड़ता, सहजता और उपदेश प्रवणता के दर्शन होते है। प्रवचन आदि में कभी-कभी प्रसंगानुसार आशु कविता के रूप में भी उनकी सरस्वती स्वतः स्फूर्त हो जाती थी। काव्य रचना की दृष्टि से भी गुरुदेव ने लगभग ५०० भजन लिखे हैं, और २५-३० चरित काव्य भी। यहाँ पर नमूने के रूप में कुछ भजन व चरित काव्यों के कुछ प्रेरक अंश तथा संस्कृत रचना का रसास्वाद प्रस्तुत हैं -सम्पादक जागजा इन्सान मैं मूल रूप अविकारी हूँ। चिन्मय ज्योति का धारी हूँ। मैं शाश्वत सुख का स्वामी हूँ॥३॥ स्वकर्ता पर का काम नहीं। पर पुद्गल में विश्राम नहीं। 'पुष्कर' मैं मुक्ति का कामी हूँ। मैं शुद्ध बुद्ध गुणधामी हूँ॥४॥ आपरी चिन्ता [तर्ज-चुप-चुप आते हो] जागजा रे जागजा, जागजा इन्सान है। तेरे मन मन्दिर में, बैठे भगवान है।।टेर।। प्रेम से तू मन्दिर मस्जिद, गुरुद्वारे में जाता है। करता पूजा-पाठ और, भक्ति गीत गाता है। तन में भक्ति, मन में तेरे बैठा तो शैतान है।।१।। आगम और गीता की, स्वाध्याय भी करता है। लगा कर अपना कान, सन्त वाणी सुनता है। बेच देता लालच में, इज्जत और ईमान है॥२॥ लड़ाता है स्वार्थ हित, कहता धर्म लड़ाई है। मैत्री को नहीं देखता तू, देखता कमाई है। गरीबों से बनते तेरे, बंगले आलिशान हैं॥३॥ जाति-पाति की तो मैंने, खड़ी की दीवारे हैं। राम कृष्ण वीर के तू, लगा लेता नारे हैं। “पुष्कर मुनि" धर्म कर, छोड़ आर्तध्यान है।।४।। [तर्ज-तेजारी] औरांरा अवगुण मत देखो-एक बात थे मानलो। अवगुण देखो तो देखो आपरा टेर।। चाहे जिसा दूसरा है जी, आपां रो नुक्सान के॥ आपां आपां रै ही हौ कामरा ॥१॥ चाहे भला दूसरा है जी, लाभ कांई है आपा रै॥ आपां आपां रै ही हां काम रा 3. ॥२ 3.00000000000000000020 आपां रो सुधार करो, आपां रै विचारां सूं॥ आपां आपां ने समझो आपरा ॥३॥ अविनाशी और निर्नामी हूँ (तर्ज-जय बोलो महावीर स्वामी की) मैं शुद्ध बुद्ध गुणधामी हूँ। और ज्ञानानन्द अभिरामी हूँ॥टेर॥ स्व पूर्ण हूं पर की गन्ध नहीं। मेरा पर से कोई सम्बन्ध नहीं। अविनाशी और निर्नामी हूँ॥१॥ राग द्वेष से सदा निराला हूँ। अखण्ड मैं चैतन्य वाला हूँ। निरिच्छा और निष्कामी हूँ॥२॥ दूसरा तो हँसी उडावै, काम पड्यां सूं आपां री॥ रक्षा आपां री आपां ही करो ॥४॥ जिनवररी जय हो गई जय, आपां री अब होणी है। 'पुष्कर' आपां ने चिन्ता आपणी ॥५॥ उनएउमडण्यासब्यालण्डपत SSRPAARADARS2600000.0000DAP lain Education International D D O -ForPrivales.Personatyse only asp4.00.0000300500 For Prvale & Personal Use Only OBVO 60
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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