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________________ D 2050 249.90902 JH0050002090DADI DS.GOODCHIDAD ३६२ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । स्थिर मन वाले साधक के लिए रात्रि या दिन के नियत समय की | होगा। इसीलिए सुध्यान के लिए तीन उत्तम संहनन वाला पुरुष आवश्यकता नहीं है। जब भी मन-वचन-काय स्वस्थ, स्थिर एवं योग्य माना गया है। शान्त, हो, तब ध्यान किया जा सकता है। ध्यान साधक के लिए ध्यानयोगी के लिए निम्नोक्त दृढ़ संकल्प सामान्यतया स्त्री, पशु, नपुंसक तथा कुशील व्यक्ति से रहित एकान्त, शान्त गंदगी एवं कोलाहल रहित, विघ्न-बाधारहित, निर्जन वन, ___एक बात और ध्यान करने से पूर्व साधक को निम्नोक्त बातों गुफा, निर्जीव प्रदेश, भूमि, शिला, तीर्थंकरों की जन्मभूमि, तपोभूमि, का दृढ़ संकल्प करना चाहिए-१. मैं किसी भी परिस्थिति को निर्वाणभूमि, केवलज्ञान कल्याणकभूमि, आदि पवित्र स्थानों में प्रतिकूल नहीं मानूंगा, २. मैं किसी की कमी या अवगुण नहीं कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थिर रहकर ध्यान करना उचित है। किन्तु जो देलूँगा, ३. मैं किसी की आलोचना-निन्दा नहीं करूँगा, ४, मैं अपने संहनन एवं धैर्य से बलिष्ठ हैं, ज्ञान-दर्शन-चारित्र- वैराग्य-मैत्री ध्येय के लिए बलिदान देने को तैयार रहूँगा, ५. सुख-दुःख, प्रमोद-करुणा-माध्यस्थ्य आदि भावनाओं के प्रयोग से अभ्यस्त हैं तथा मान-अपमान, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा आदि में सम रहने का जिनका मन अत्यन्त स्थिरता एवं निश्चलता को प्राप्त हो चुका है, प्रयास करूँगा, ६. मैत्री एवं बन्धुता की भावना को विकसित उनके लिए जनाकीर्ण ग्राम, नगर तथा निर्जनवन, श्मशान, गुफा, करूँगा, ७. ध्यान का जो समय निर्धारित किया है, उस व उतने महल आदि सब समान हैं। ध्यानशतक के अनुसार जहाँ समय तक अवश्य ध्यान करूँगा, ८. अपनी शक्ति, समय एवं मन-वचन-काया के योगों को समाधि प्राप्त हो, तथा जो प्राणिहिंसादि योग्यता का पूर्ण सदुपयोग करूँगा। से विरहित स्थान हो, वही ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान है। __ इस प्रकार के धर्म ध्यान की योग्यता चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ ध्यान के लिए आसन, स्थिति और मुद्रा हो जाती है। जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टि एवं अज्ञानी है, वह धर्मध्यान - जैनागम तथा अन्य ग्रन्थों में सुध्यान के लिए कुछ आसन की भूमिका पर आरूढ़ नहीं हो पाता, किन्तु शुभ आर्तध्यान की बताए गए हैं, किन्तु ध्यान के लिए कोई निश्चित आसन न होकर भूमिका पर आरूढ़ होकर धीरे-धीरे शुक्लपक्षी, सद्भावनाशील ऐसा सहज साध्य आसन होना चाहिए, जिससे देह को पीड़ा एवं होकर समग्र दृष्टि प्राप्त धर्म ध्यान की ओर क्रमशः बढ़ सकता है। कष्ट न हो। ध्यान का ऐसा कोई नियम भी नहीं है कि वह ध्यान : सभी वर्ग के व्यक्तियों के लिए बैठे-बैठे, खड़े-खड़े, लेटे-लेटे ही हो, कायोत्सर्ग मुद्रा में ही हो, कई लोग कहते हैं कि सुध्यान केवल ऋषि मुनियों एवं योगियों अथवा वीरासनादि आसन में ही हो। जिस योग से स्वस्थता रहे, के लिए है। ध्यान से चित्त में सहज मैत्री एवं करुणा जागृत होती उस स्थिति, मुद्रा या आसन से ध्यान किया जा सकता है। है। ध्यान से करुणा एवं आत्मौपम्य दृष्टि वश अहिंसा का पालन ध्यान-सिद्धि के लिए गोदुहासन, सिद्धासन, पद्मासन या सुखासन सहज में हो जाता है, साथ ही सत्य और अस्तेय का भी आचरण एवं कायोत्सर्गमुद्रा अधिक उपयोगी है। वस्तुतः आसन से चित्त की हो जाता है। शरीर के प्रति रही हुई आसक्ति धीरे-धीरे कम होने से स्थिरता, काया की स्थिरता, कष्टसहिष्णुता तथा देह जड़ता ब्रह्मचर्य पालन भी आसान हो जाता है। मन शांत होने से तृष्णा की निवारण होने से ध्यान में स्थिरता होती है। ध्यान के समय भगवान् अग्नि भी बुझती जाती है, इस कारण अपरिग्रहवृत्ति भी अनायास महावीर ने ध्यानयोग के लिए नासाग्रदृष्टि का, अनिमेषदृष्टि व एक ही जीवन में आ जाती है। पुद्गल निविष्ट दृष्टि का और स्वामी विवेकानन्द ने भ्रूमध्य दृष्टि का विधान किया है। ध्यान के समय मन तनावयुक्त न हो, इसके अपनी आत्मा का सूक्ष्म रूप से दर्शन भी ध्यान के द्वारा होता लिए शरीर का शिथिलीकरण आवश्यक है। ध्यान साधना में मेरु है। अतः ध्यान सर्वसामान्य जीवन के लिए भी उपयोगी है। ध्यान से दण्ड सीधा रखना चाहिए। कमर, पीठ, गर्दन और मस्तक एक जब व्यक्ति अन्तर्मुखी हो जाता है, तब बाहर के सभी विषयों का सीधी रेखा में हों। दोनों कंधे व हाथ झुके हुए समग्र अवयव रस फीका पड़ जाता है। ध्यान से व्यक्ति अन्तर में जागृत और शिथिल रहें। अप्रमत्त हो जाता है। उसकी कार्यक्षमता बढ़ जाती है। बच्चों को बचपन से ध्यान का अभ्यास कराया जाए तो उनमें अनायास ही ध्यानयोग के लिए आवश्यकताएं एवं योग्यताएँ नियमों पर चलने की दृढ़ता आ जाती है। विद्यार्थियों में विनम्रता ध्यानयोग की साधना के समय छह आवश्यकताओं का विधान और एकाग्रता ध्यान से आ जाती है, उनकी स्मृति तीक्ष्ण और बुद्धि समाधितंत्र में किया गया है-१. साधना में उत्साह, २. दृढ़ निश्चय प्रखर हो जाती है। युवकों की शक्ति जो आज विलासिता और (मन में स्थिरता), ३. धैर्य, ४. सन्तोष, ५. तत्व दर्शन (स्वरूपानु- भोगों में रमणता की ओर लग रही है, वही शक्ति ध्यान से केन्द्रित भवन) 6. जनपदत्याग/विविक्तशय्यासन। होकर तथा अन्तर्विवेक जागृत होकर सुन्दर एवं उन्नत जीवन'सुध्यान की योग्यता के लिए शारीरिक एवं मानसिक बल भी निर्माण में लग जाती है। समस्या से घिरा हुआ चित्त ध्यान से आवश्यक है। जिसका शारीरिक संघटन कम होगा, उसका मानसिक धीरे-धीरे शान्त एवं निर्मल होकर उक्त समस्या को शीघ्र सुलझाने बल भी कम होगा। मानसिक बल कम होगा तो चित्त स्थैर्य भी कम और शीघ्र निर्णय करने में सक्षम हो जाता है। अतः व्यापारी वर्ग AR अप प्रमाण 36002A6000000mlarsaitelbrary.org, 500.06.OOOPivoteAPerinaruggB0000000000000000 Jam Education International
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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