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________________ वाग देवता का दिव्य रूप नियमित रूप से अपनाने पर वह स्वभाव का अंग बनती है और अपने व्यक्तित्व के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़ जाती है। एकाग्रता का अभ्यास प्रारम्भ में १५ मिनिट से किया जा सकता है। लेखन, स्वाध्याय, अध्ययन, ध्यान, अनुप्रेक्षा आदि जो भी प्रयोजन हो, उसके आकर्षक पक्षों को सामने रखकर पूर्ण उत्साह, सत्कार एवं विनय के साथ अभीष्ट विचारों में मन को पिरो देना चाहिए। मन तभी भागता है, जब अभीष्ट विषय में गहरी रुचि नहीं होती। अतः चिन्तनीय विषय को जीवनोन्नति के लिए उपयोगी, लाभप्रद एवं आवश्यक माना जाएगा तो मन उसमें जरूर लगेगा। पूर्ण दृढ़ता, दृढ़ संकल्प, तन्मयता एवं पूरे उत्साह के साथ चिन्तन में अपने आपको को तल्लीन कर देने पर जल्दी ही एकाग्रता और मनोनिग्रह में सफलता प्राप्त होती है। एकाग्रता के दूसरे पक्ष के अनुसार किन्हीं उत्कृष्ट विचारों में, ऊहापोह में गहराई तक उतरते जाना इस प्रकार एकाग्रता और तदनुरूप मनोनिग्रह में उभयपक्षीय पर्यवेक्षण समुद्रमंथनवत् विचारमन्थन अपेक्षित है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, योगसाधना के इन चारों अंगों में एकाग्रता का अभ्यास अनिवार्य है। एकाग्रता में कई बार तो परिस्थितियाँ ही बाधक बन जाती हैं। बैठने का स्थान, या ढंग असुविधाजनक हो तो चित्त बार-बार डांवाडोल होता रहेगा। मलिन सीलन वाले, दुर्गन्धयुक्त तथा अनुपयुक्त तापमान वाले स्थान में मन एकाग्र नहीं होता तो कोलाहल, खटपट, भगदड़ एवं हलचल वाले स्थान एवं दृश्य से रहित, सर्दी-गर्मी की उत्कटता एवं स्वच्छता से रहित शान्त एवं उपयुक्त स्थान में मन शीघ्र एकाग्र हो सकता है। स्थान एवं बैठने के साधन मन की एकाग्रता के लिए अनिवार्य हैं। अतः स्थान, समय, स्थिति और प्रयोगकाल का सन्तुलन मन की एकाग्रता के लिए महत्वपूर्ण साधन हैं। एकाग्रता के अभ्यास के लिए स्थान शान्त एवं स्वच्छ हो, आसन भी शरीर के लिए सुविधाजनक हो। अभ्यास का समय निर्धारित हो तथा वह घड़ी के अनुसार नियम- नियमित हो, तो मन अवश्य ही एक अभीष्ट स्मृति, कल्पना, विकल्प या संकल्प में एकत्रित या केन्द्रित होगा। अतः जितने समय तक अभीष्ट विषयक चिन्तन करने का संकल्प किया हो, उतने समय तक अभीष्ट चिन्तन के सत्परिणामों एवं संभावनाओं पर विचार करने तथा सुदृढ़ संकल्प एवं नियमित प्रयास जुड़ जाने से एकाग्रता सरल, अधिक लम्बी और गहरी होती जाती है। एकाग्रता की शक्ति बढ़ने से मनःशक्ति भी बढ़ती जाएगी। मन की चंचलता और उसके निग्रह के दो उपाय इसीलिए अर्जुन ने कर्मयोगी श्रीकृष्ण जी से कहा थाचंचलं हि मनः कृष्ण ! प्रमाथि बलवद् दृढ़म्। तस्याऽहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ Jain Education Internationa ३४१ हे कृष्ण ! मन बड़ा ही चंचल, हठी, बलवान् और वृढ़ है, मैं तो इसका निग्रह हवा को पकड़ने की तरह अति दुष्कर मानता हूँ। इसका समाधान श्रीकृष्ण जी ने किया असंशयं महाबाहो ! मनोदुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय ! वैराग्येण च गृह्यते ॥ 10.02 "हे महाबाहू । निःसन्देह मन बड़ा ही चंचल और मुश्किल से पकड़ (चश) में किया जा सकता है सचमुच मन की चंचलता, अस्थिरता और अधीरता, उसके निग्रह में बाधक है। बड़े-बड़े साधक चंचलता, अस्थिरता और फलाकांक्षा की अधीरता के कारण मन का निग्रह ( वशीकरण) नहीं कर पाते। मनोनिग्रह के लिए किन-किन बातों का अभ्यास आवश्यक ? मन को निगृहीत करने, वश में करने या मन पर विजय पाने का योगदर्शन और गीता ने सर्वप्रथम उपाय बताया है-अभ्यास । आध्यात्मिक साधना के लिए मनोनिग्रह आवश्यक है। परन्तु मनोनिग्रह के लिए सर्वप्रथम मन पर जमे हुए मिध्यात्व अज्ञान और मोह के मैल को दूर करना आवश्यक है। पदार्थ अनित्य है, उन्हें नित्य और अपने मानना तथा अपने माने हुए या परम्परा प्राप्त शरीर, परिवार, सम्प्रदाय, जाति, भाषा आदि को तथा काम, क्रोध, लोभादि विभावों को अपने न होते हुए भी अपने मानना मन पर मैल चढ़ाना है । मन पर जमने वाले इन मलों को दूर करने के लिए अन्यत्व, अनित्यत्व और एकत्व, इन तीन अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास जरूरी है। शरीर और आत्मा का भेद ज्ञान होना, अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। आत्मा और आत्मगुणों के सिवाय संसार के सभी पदार्थ अनित्य हैं, ऐसा चिन्तन अनित्यानुप्रेक्षा है। इसी प्रकार आत्मा के निजी गुणों (ज्ञानादि) के साथ एकत्व का चिन्तन एकत्वानुप्रेक्षा है। ऐसा करने से मन पर जमा मैल दूर करने का अभ्यास भी होगा तथा अनुप्रेक्षा से तत्वज्ञान प्राप्ति होने से वैराग्य भी होगा। मनोनिग्रह के लिए दूसरा उपाय है मन को कुसंस्कारी होने से बचाने का अभ्यास करना। बाहर के लोगों को हम कितनी ही सलाह देते रहते हैं, परन्तु अपने मन की दुर्दशा, आवारागर्दी, उच्छृंखलता, अनगढ़ गतिविधि, अवांछनीयता, उद्दण्डता मूर्खता एवं कुमार्गगामिता पर कभी ध्यान नहीं देते। यही कारण है कि मन ने हमारी प्रभुता, मनन क्षमता, एकाग्रता सबको चौपट कर दिया। इसी कारण मनोनिग्रह करने में कठिनाई पड़ती है। कवि अमरचंद जी म. ने मन की दुर्दशा पर गहरा दुःख व्यक्त करते हुए कहा है अद्भुत दशा कहूं क्या, कैसी हुई है मन की? सारी बिगाड़ डाली, प्रभुता स्वयं मनन की। इस प्रकार मन बैसिर-पैर की उड़ाने उड़ता है, अस्त व्यस्त और अव्यवस्थित विचार करता है। इस से मन की अगाध शक्ति का अपव्यय होता है। ऐसी स्थिति में जीव की मात्र बदनामी ही 00 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org DOADING CAL
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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