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________________ परामराट 10 06003 0000000000 Pos | वाग् देवता का दिव्य रूप है। इन दोनों के एकार्थक होते हुए भी इनके तात्पर्यार्थ में अन्तर है। हो, विधायक हो, विनाशक न हो, कल्याण का स्रष्टा हो, ध्वंस अश्व उस घोड़े को कहते हैं जो धीरे-धीरे दौड़ता है। बाजि कहते । का रचयिता न हो। वे मन की एकाग्रता और मनोबल में वृद्धि ही हैं-तीव्रगति से दौड़ने वाले घोड़े को। यदि उसे रोका न जाए तो नहीं, उसका सही दिशा में नियोजन भी चाहते थे। मनोबल के धनी वह दुर्घटना कर सकता है। सुयोग्य साधक प्रथम प्रकार के घोड़े को तो हिटलर और नेपोलियन आदि भी थे। परन्तु वे इस शक्ति का चाबुक मार कर सही मार्ग पर आगे बढ़ने को बाध्य करता है, नियोजन और उपयोग अच्छी दिशा में, सत्कार्यों में न कर सके। उसके ढीले-ढालेपन को स्फूर्ति में बदलने का प्रयत्न करता है। अतः मन में उठने वाले विचारों में से अनुपयोगी विचारों की किन्तु बाजि को सदा लगाम खींच कर गलत मार्ग पर जाने से काट छाँट एवं बहिष्कार की व्यवस्था तुरन्त बनानी जरूरी है। रोकता है। मन की पहली शक्ति को “नयन" करता है और दूसरी अन्यथा वे निरर्थक घास-पात की तरह उगते जाएँगे और मन । शक्ति पर "नियमन" करता है। अर्थात् वह मन की शिथिलता को की उर्वरा शक्ति को अवशोषण करके फलेंगे-फूलेंगे एवं मनुष्य के सक्रियता में बदलता है तथा उद्धत और मनमानी दौड़ लगाने वाले । अधःपतन और शक्तिह्रास का कारण बनेंगे। उनकी निरन्तर मन को लगाम खींचकर रोकता है, उद्धत आचरण से बचाता है। काट-छाँट करना उतना ही आवश्यक है, जितना कि मन में मन को साधने और प्रशिक्षित करने की कला यही है। आध्यात्मिक सद्विचारों का बीजारोपयण तथा उन्हें परिपक्व बनाने मन को साधने के लिए एकाग्रता और नियंत्रण अपेक्षित का प्रयास। मन को साधने में एकाग्रता और नियंत्रण ये दोनों ही उपाय } मन की एक वस्तु में समग्र तन्मयता अपेक्षित हैं। महत्वपूर्ण पक्ष विचारों का है। मन में प्रतिक्षण अच्छे एक बार संत विनोबाजी से किसी ने पूछा-आपको ध्यानयोग में बुरे संबद्ध-असंबद्ध विचार उठते ही रहते हैं। अगर उस पर अंकुश पारंगत माना जाता है, कृपया, उसकी विधि क्या है बताइए? उत्तर और सावधानी न रखी जाए तो वे अपने अनुरूप अच्छा बुरा में उन्होंने कहा-मैं मन से जो सोचता हूँ या करता हूँ, उसमें प्रभाव डालते ही हैं। अतः उन पर नियंत्रण की उतनी ही अपनी समग्र तन्मयता केन्द्रीभूत कर देता हूँ। मैं जब किसी कार्य के आवश्यकता है, जितनी कि एकाग्रता के लिए प्रयत्न की। मन को विषय में सोचता हूँ कि क्या इस समय मेरे लिए यही कार्य सर्वोपरि स्वच्छन्द और अनियंत्रित छोड़ देने पर वह तरह-तरह की विकृतियां महत्व का है? इस सन्दर्भ का चिन्तन ही मेरे लिए अभीष्ट है,। खड़ा कर देता है और मन की शक्ति को कुण्ठित एवं दुर्बल कर } इसे करने में मुझे इस प्रकार जुटना है कि मेरी तन-मन-बुद्धि की देता है। इसी प्रकार मन को बिखराव से भी रोकना अपेक्षित है, शक्ति का एक कण भी बिखरने न पाए। यही वह विधान है जिसे अगर मन को चारों ओर बिखरने-अनेकाग्र होने दिया जाए तो 1 मैं अपने हर कृत्य में अपनाता हूँ। इस प्रकार जागृत स्थिति में उसकी अधिकांश शक्ति लोभ, काम, क्रोध, मोह, राग-द्वेष आदि के निरन्तर ध्यानयोग में तल्लीन रहता हूँ। यहाँ तक कि विश्रान्ति के भौतिक आकर्षणों-विकर्षणों में यों ही नष्ट होती रहेगी और क्रमशः । समय भी मन की यही स्थिति रहती है। क्षीण होती जाएगी। यह है मनोनिग्रह के संदर्भ में अभीष्ट विचार व कार्य में शक्तियों के पुंज मन को शिव संकल्प वाला बनाओ तन्मयता और एकाग्रता से बिखरी हुई मनःशक्ति एवं कार्यक्षमता ___ मन असीम सामर्यों का स्रोत है। वह संकल्प-विकल्प का। को व्यर्थ चिन्तन एवं कार्य से रोक कर एक मात्र अभीष्ट कार्य में खजाना है। संकल्प-विकल्प पर उत्थान-पतन का क्रम निर्भर है।। केन्द्रित करने का प्रतिफल! अनगढ़ मनुष्य को सुगढ़ और नर-पशु को नरनारायण बना देने की मनोनिग्रह के लिए सर्वप्रथम एकाग्रता और अगर किसी में क्षमता है तो मन में है। वह शक्तियों का पुंज है। तन्मयता आवश्यक शारीरिक शक्ति की अपेक्षा मन की शक्ति कई गुना अधिक है। सारांश यह है कि मनोनिग्रह के लिए सर्वप्रथम एकाग्रता और महामानवों के गढ़ने की भी उसमें सामर्थ्य है और नर- पिशाचों को तन्मयता आवश्यक है। एकाग्रता की उपयोगिता और क्षमता से बनाने की भी। मन जब ऊर्ध्वगामी बनता है तो मनुष्य महात्मा, सभी परिचित हैं। साहित्यकार, कलाकार, वैज्ञानिक, अभिनेता, संत, देवात्मा, परमात्मा तक बन जाता है, और जब निम्नगामी बनता है तो नर से नरपशु तथा नर-पिशाच भी बन जाता है। शिल्पी, सर्कस के खेल दिखाने वाले, नट आदि अपनी कल्पना शक्ति को एकाग्र करके उसे अभीष्ट प्रयोजनों में लगाते हैं। इसी इसलिए ऋषियों ने इस तथ्य को समझकर मन को नियंत्रित, सुदृढ़, प्रकार मनोनिग्रह के लिए एकाग्रता की साधना करनी पड़ती है। मन स्थिर और एकाग्र बनाने पर जोर दिया और प्रार्थना की-"तन्मे के बिखराव को एकत्रित करने पर क्षमता कितनी बढ़ जाती है, मनः शिवसंकल्पमस्तु"-मेरा वह मन शिव (कल्याणमय) संकल्प इसे सभी जानते हैं। मनुष्य का मन-मस्तिष्क अनन्त शक्तियों का वाला हो। यानी मन का जो भी संकल्प हो, वह शिव हो, रौद्र न भण्डार है, परन्तु कठिनाई यह है कि वे शक्तियां बिखरी रहती हैं १. देखें-अखण्ड ज्योति, मार्च १९८१ (श्री राम शर्मा आचार्य) में पृष्ठ ११ और एक स्थान पर केन्द्रित नहीं हो पाने से उनसे अभीष्ट लाभ 00000000 30000000000 00 FD000 50 कताकतात 09005656533%30030050000-000-00 Sependhisuse one699999 Jan Education internationalosbacaatoneRO DODD O E G Ratop%30
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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