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________________ ३१८ अरुणदेव ने कहा " मित्र ! तुम तो जानते हो कि बनिये का बेटा जहाँ भी गिरता है, कुछ-न-कुछ लेकर ही उठता है। अगर तुम मेरे साथ चलो तो एक पंथ दो काज के अनुसार जहाज लेकर चलें। पाटलिपुर में माल बेचें। धन भी कमा लायें और तुम्हारी भाभी को भी ले आयें। " महेश्वर को अरुणदेव का प्रस्ताव पसन्द आया। दोनों ने एक ही जहाज में किराने का सामान लादा और समुद्री मार्ग से द्वि-उद्देश्यीय यात्रा शुरू कर दी। आदमी अपनी योजना बनाता है, पर होता कुछ और ही है। यही भाग्य है, यही कर्मयोग है। अरुणदेव और महेश्वर खुशी-खुशी समुद्र की छाती को चीरते हुए चले जा रहे थे कि तभी समुद्र में भयंकर तूफान आया। जहाज उलट-पलट गया। दोनों मित्रों के प्राण संकट में पड़ गये। लेकिन बचने वाला अथाह सागर में भी बच जाता है और मरने वाला एक मामूली ठोकर से भी नहीं बच पाता । महेश्वर और अरुणदेव दोनों एक लकड़ी के तख्ते के सहारे तैरते तैरते पाँच दिन में किनारा पा गए। संयोग से दोनों पाटलिपुर नगर में पहुँच गए। महेश्वर ने अरुणदेव से कहा “चलो, यह भी अच्छा ही हुआ कि हम तुम्हारी सुसराल पहुँच गए। किसी और नगर में पहुँचते तो बड़ी परेशानी होती । " अरुणदेव ने कहा " मित्र ! अब हम सुसराल नहीं जाएँगे ।" "क्यों ?" आश्चर्य व्यक्त करते हुए महेश्वर ने पूछा - "तुम्हारे श्वसुर जसादित्य तो नगर के बहुत बड़े श्रेष्ठी हैं, देयिणी भाभी भी अपने पिता के पास हैं । तुम्हारे आने की उन्हें कितनी खुशी होगी! तुम सुसराल जाने से क्यों इन्कार कर रहे हो ?" अरुणदेव ने साफ-साफ कहा "मित्र! मैं सुसराल हरगिज नहीं जाऊँगा। सिद्धान्त और व्यवहार दोनों दृष्टियों से आपदग्रस्त और वक्त के मारे व्यक्ति को सुसराल नहीं जाना चाहिए। अपने घर से खाकर चलो तो बाहर भी खाना मिलता है। अच्छी दशा में सुसराल में जो सम्मान होता, सो अब न होगा।" अरुणदेव की युक्तियुक्त बात महेश्वर ने मान ली। दोनों उद्यान (Park) में पहुँचे। अरुणदेव को उद्यान में छोड़कर महेश्वर बाजार से भोजन लेने चला गया। सन्ध्या का समय था। देयिणी अपनी सखियों के साथ हवा खाने उद्यान में आई संध्या की सुरमई चादर ने धीरे-धीरे रात्रि की काली चादर ओढ़ ली। तभी एक चोर आया और देयिणी के हाथ काटकर उसके रत्नजटित कंगन ले गया। देखिणी के हाथों से रक्त की धारा बहने लगी। उसने चोर-चोर का शोर मचाया। उद्यान रक्षक राजा के सिपाही चारों ओर दौड़े। चोर ने सोचा, 'अब मुश्किल है, अतः वह छिपने के लिए केली गृह में Jain Education International उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ घुस गया। वहाँ अरुणदेव सो रहा था। चोर ने देयिणी के दोनों कंगन और छुरी अरुणदेव के पास पटक दिये और स्वयं झाड़ियों में छिप गया। राजा के सिपाही चोर को ढूँढ़ते फिर रहे थे। जब वे वहाँ आये तो अरुणदेव को रंगे हाथों पकड़ लिया और राजा के पास ले गये। चूंकि अरुणदेव के पास देविणी के कंगन और छुरी बरामद हुई थी, इसलिए राजा ने उससे कोई पूछ-ताछ नहीं की और तत्काल शूली का हुक्म दे दिया। राजा के सिपाही अरुणदेव को शूली पर चढ़ाने ले गए। इधर बाजार से खाना लेकर महेश्वर उद्यान में आया। जब उसे केली गृह में अरुणदेव नहीं मिला तो उसने उद्यान -रक्षक से पूछा "यहाँ मेरा मित्र अरुणदेव सो रहा था। क्या तुम्हें मालूम है कि वह कहाँ गया ?" उद्यानरक्षक ने कहा "भाई मैं तो किसी अरुणदेव को नहीं जानता हो, इतना मुझे मालूम है कि किसी चोर ने नगर के प्रसिद्ध व्यापारी जसादित्य की पुत्री देयिणी के हाथ काटकर उसके कंगन ले लिए हैं। राजा के सिपाही एक सोते हुए चोर को कंगन और छुरी सहित पकड़ कर ले गए हैं। राजा ने उसे शूली का हुक्म दिया है। मुझे तो बस इतना ही मालूम है।" उद्यान - रक्षक की बात सुन महेश्वर तत्काल शूली स्थल पर गया। अरुणदेव शती के पास खड़ा था। महेश्वर अरुणदेव को देखकर करुणकन्दन करने लगा और शोकविह्वल होकर मूर्च्छित हो गया। राजा के सिपाही अरुणदेव को शूली चढ़ाना तो भूल गए और महेश्वर को देखने लगे। उन्होंने सोचा, 'यह भी चोर का साथी है। इसे भी तो कुछ सजा मिलनी चाहिए, पर पहले इसकी मूछ तो दूर हो।' दर्शकों को महेश्वर की मूर्च्छा का बड़ा दुख था। जल के छींटे देकर दर्शक महेश्वर की मूर्च्छा दूर करने का प्रयत्न करने लगे। शीतल वायु के स्पर्श और लोगों के प्रयास से जब महेश्वर की मूर्च्छा दूर हुई तो लोगों ने उससे पूछा "भाई! तुम इस चोर को देखकर क्यों रो रहे हो ?" महेश्वर ने कहा “मुझे तो इस बात पर रोना आता है कि यहाँ का राजा निरपराधों को ही सजा देता है।" राजा के सिपाही तथा दर्शकों ने कहा "इसने जसादित्य श्रेष्ठी की पुत्री देषिणी के हाथ काटकर उसके कंगन चुराये हैं। कंगन और छुरी सहित यह रंगे हाथों पकड़ा गया है। फिर तुम इसे निरपराध कैसे कहते हो ?" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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