SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ PAdd 86900 । वाग् देवता का दिव्य रूप आचार्य कालक ने जैन परम्परागत कथाओं का संग्रह किया और जीवन को तो सुखमय बनावे ही, साथ ही समाज सुधार में अपनी इस क्षीण होते साहित्य का प्रथमानुयोग नाम से पुनरुद्धार किया। शक्ति, योग्यता और क्षमता का उपयोग कर सके। साथ ही वे अपने इस उल्लेख के प्रमाण वसुदेवहिण्डी', आवश्यक चूर्णि, आवश्यक पारिवारिक जीवन में स्नेह-वात्सल्य की सरिता बहा सके।६ सूत्रर तथा अनुयोगद्वार की हरिभद्रीयावृति३ और आवश्यक उपसंहार निर्यक्ति आदि ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। इन ग्रंथों में जिस प्रथमानुयोग का संकेत है, वह यही पुनरुद्धरित प्रथमानुयोग है, जिसके विश्व के वाङ्मय में कथा साहित्य अपनी सरसता और पुनरुद्धारकर्ता आर्यकालक हैं। कतिपय विद्वानों ने यह अभिमत भी सरलता के कारण प्रभावक और लोकप्रिय रहा है। भारतीय साहित्य व्यक्त किया है कि इस कथा साहित्य (दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत में भी कथाओं का विशालतम साहित्य एक विशिष्ट निधि है। पूर्वगत कथा साहित्य) का मूल नाम प्रथमानुयोग ही था किन्तु वह भारतीय कथा साहित्य में जैन एवं बौद्ध कथा साहित्य अपना लुप्त हो चुका था। अतः आर्यकालक द्वारा पुनरुद्धरित प्रथमानुयोग विशिष्ट महत्व रखते हैं। श्रमण परम्परा ने भारतीय कथासाहित्य से मूल प्रथमानुयोग का भेद दिखाने के लिए समवायांग और की न केवल श्रीवृद्धि की है अपितु उसको एक नई दिशा भी दी है। नंदीसूत्र में पूर्वगत प्रथमानुयोग को मूल प्रथमानुयोग कहा गया है। जैन कथा साहित्य का तो मूल लक्ष्य ही रहा है कि कथा के माध्यम से त्याग, सदाचार, नैतिकता आदि की कोई सत्प्रेरणा देना। आगमों दिगम्बर साहित्य में तो कथा-ग्रंथों-पुराणों के लिए प्रथमानुयोग से लेकर पुराण, चरित्र, काव्य, रास एवं लोककथाओं के रूप में शब्द रूढ़ हो गया है, वहाँ इसी नाम का व्यवहार होता है। जैन धर्म की हजारों-हजार कथाएँ विख्यात हैं। अधिकतर कथा प्रथमानयोग नामकरण के अनेक कारण हो सकते हैं, यथा-इस साहित्य प्राकत, संस्कत, अपभ्रंश, गुजराती एवं राजस्थानी भाषा में साहित्य की विशालता, प्रेरकता आदि। किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण होने के कारण और वह भी पद्य-बद्ध होने से बहुसंख्यक पाठकगण कारण यह प्रतीत होता है कि बिल्कुल ही निपट अज्ञानी पुरुष, } उससे लाभ नहीं उठा सकते। जैन कथा साहित्य की इस अमूल्य जिसने कभी धर्म का नाम भी न सुना हो, उसे कथाओं द्वारा सहज निधि को आज की लोक भाषा-राष्ट्रभाषा हिन्दी के परिवेश में ही धर्म की ओर रुचिशील बनाया जा सकता है। दिगम्बर परम्परा प्रस्तुत करना अत्यन्त आवश्यक है। इस दिशा में एक नहीं कई में इसी हेतु को स्वीकार करके सर्वप्रथम सामान्य और यहाँ तक कि सुन्दर प्रयास भी आरम्भ हुए हैं पर अपार अथाह कथा-सागर का अचार्य लोगों को भी धर्म संस्कार प्रदान करने के लिए प्रथमानुयोग आलोड़न किसी एक व्यक्ति द्वारा सम्भव नहीं है। जैसे-जगन्नाथ के | का ही ज्ञान देने कथाओं द्वारा धर्मोपदेश का निर्देश दिया गया है। रथ को हजारों हाथ मिलकर खींचते हैं, उसी प्रकार प्राचीन मैं इस चर्चा में विस्तार से न जाकर इतना ही कहना चाहता हूँ कि कथा-साहित्य के पुनरुद्धार के लिए अनेक मनस्वी चिन्तकों के अंगशास्त्रों में उल्लिखित कथाओं के अतिरिक्त जिस अन्य विपुल दीर्घकालीन प्रयत्नों की अपेक्षा है। कथा साहित्य का इस माला में संकलन का प्रयास हुआ है उसका ___ इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु पूज्य गुरुदेवश्री पुष्करमुनिजी मूलाधार दृष्टिवादगत मूल प्रथमानुयोग अथवा आर्यकालक द्वारा महाराज ने वर्षों तक इस दिशा में महनीय प्रयास किया है। उन्होंने पुनरुद्धरित प्रथमानुयोग है।५।। अपने विशाल अध्ययन-अनुशीलन के आधार पर सैकड़ों कथाओं इन कहानियों में जितनी प्रेरणाएँ हैं, सबका शाश्वत महत्व है। का प्रणयन किया है जिनका एक सुदीर्घ कथा माला (जैन कथाएँ) ऐसा कभी नहीं हो सकता जबकि सत्य, शील, सदाचार, परोपकार के रूप में सम्पादन मेरे द्वारा सम्भव हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक माला आदि चारित्रिक सद्गुण महत्वहीन हो जाएँ अथवा सेवा, सहयोग, 1 की संख्या एक सौ ग्यारह है। अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेवश्री सहकार आदि समाज को स्थिरता प्रदान करने वाली प्रवृत्तियों के । उपाध्याय पुष्करमुनि जी द्वारा गद्य-पद्यात्मक विराट कथा का अभाव में समाज और सामाजिक गतिविधियाँ प्रवर्तमान् रह सकें। । सम्पादित नाम “जैन कथाएँ" शीर्षक से अभिहित किया गया है जो इन कथाओं से व्यक्ति समुचित प्रेरणा ग्रहण करके अपने वैयक्तिक | हिन्दी जैन कथा साहित्य में अभिनव प्रदेय कहा जाएगा। १. एते सव्वं गाहाहिं जहा पढमाणुओगे तहेव इहइपि वन्निजति वित्थरतो। -आवश्यक चूर्णि, भाग १, पृष्ठ १६० २. पूर्वभवाः खल्वमीषा प्रथमानुयोगतोऽवसेयाः। -आवश्यक हरिमव्रीया वृति, पृष्ठ १११-११२ ३. अनुयोगद्वार हरिभद्रीयावृत्ति, पृष्ठ ८० ४. परिआओ पवज्जा भावाओ नत्थि वासुदेवाणं। होई वलाणं सो पुण पढमाणु ओगाओ णायब्यो॥ -आवश्यक नियुक्ति पृष्ठ ४१२ विजयवल्लभ सूरि स्मारक ग्रंथ, पृष्ठ ५२, प्रथमानुयोग अने तेना प्रणेता स्थविर आर्यकालक (मुनि पुण्यविजयजी) ६. जैन कथाएँ, भाग १११, लेखकीय अध्यात्मयोगी श्री पुष्करमुनि, सम्पा. देवेन्द्र मुनि, श्रीचन्द सुराना “सरस", पृष्ठ ३०-३१. DDDDOCForPrivate &Personal Useconlypop sin Education Intematonal 2005-DEO povavi.jainelibrary.org,
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy