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________________ D. CONOR x 203 ROC020-33000 } २९४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । विचार था कि जिस माता की वात्सल्यमयी गोद में पल कर सादगी और संयम से जीवन बिताना ही सच्चे कलाकार का विद्याभूषण का जीवन इतना कलामय बना है, उस रत्नकुक्षि- लक्षण है।" धारिणी जननी के दर्शन कर अपने नयनों को पवित्र करूँ। किन्तु ज्यों ही उसने सीधे-सादे वस्त्रों से तथा हाथों में पीतल के कड़े से इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरुदेवश्री द्वारा लिखित सभी युक्त विद्याभूषण की माँ को देखा त्यों ही वह भौंचक्का हो गया। कथाएँ दिलचस्प, शिक्षा-प्रधान और सारगर्भित हैं। किसी कहानी में उसके मस्तिष्क में अनेक कल्पनाएँ उत्पन्न होने लगी कि क्या ऐसा वैराग्य की रसधारा है तो किसी में बालक्रीड़ा एवं मातृ-स्नेह का महान् दार्शनिक अपनी माता की इतनी उपेक्षा कर सकता है ? क्या वात्सल्य रस प्रवाहित है तो किसी में पवित्र चरित्र की शुभ्र तरंगें ये सीधे-साधे वस्त्र और पीतल के कड़े माता के अनादर की बोलती तरंगित हो रही हैं। म कहानी नहीं हैं ? इसी प्रकार किसी कथा में नीति-कशलता की उर्मियाँ उठ रही किन्तु वार्तालाप करने से उसे अपनी धारणा मिथ्या प्रतीत हुई। हैं, कहीं पर बुद्धि के चातुर्य की क्रीड़ाओं की लहरें अठखेलियाँ कर माँ और पुत्र में अगाध स्नेह के दर्शन हुए। तथापि आगन्तुक ने रही हैं, कहीं पर दया-अहिंसा-मानवता के सिद्धान्तों की रसधारा अपने मन के अविश्वास को दूर करने के लिए अत्यन्त नम्रता से प्रवाहित हो रही है। पूछा-"माताजी! आपके शरीर पर साधारण वस्त्र और पीतल के कड़े देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है कि क्या यह आपके लिए, किसी कथा में वीर रस का तेज है तो कहीं पर शान्त रस का बंगाल के लिए और सतीश बाबू के लिए लज्जा की बात मन्द, प्रशान्त प्रवाह हृदय को शीतलता प्रदान करता है। नहीं है?" इस प्रकार आपके कथा-सागर की शोभा निराली और अत्यन्त सतीश बाबू की माँ ने कहा-“भैया! तुम्हारा यह समझना भूल मनमोहिनी है। भाषा मुहावरेदार और कहावतों से परिपूर्ण भी है भरा है। हीरे-पन्ने-माणिक-मोती के आभूषणों से आवेष्टित होकर और साथ ही सरल, सरस व सुन्दर है। जैसे तैल युक्त धुरी से लगा जन-मन में ईर्ष्या की भावना भड़काने में मैं अपना और बंगाल का चक्र बिना किसी रुकावट के नाचता है, वैसे ही पाठक स्वतः ही, व सतीश का गौरव अनुभव नहीं करती। मनुष्य की सुन्दरता सहज रूप से इन कथाओं के रस में निमग्न और प्रवाहित हो वस्त्रालंकारों से नहीं अपितु त्याग में, उदारता में, सात्विकता में है। जाता है। तुम्हें यह जानकर प्रसन्नता होनी चाहिए कि अभी कुछ समय पूर्व अन्त में, यह कहा जा सकता है कि आपश्री ने सभी प्राचीन बंगाल के दुष्काल ने जन-जीवन में एक विषमता पैदा कर दी थी, कथाओं को प्राणवती, सुन्दर भाषा में नवजीवन प्रदान किया है। मानव अन्न के दाने-दाने के लिए तरस रहा था, छटपटा रहा था। इस कथा-साहित्य में पिष्ट पेषण नहीं है। आपका लक्ष्य, इन कथाओं उस समय सतीश ने जो उदारता दिखलायी और मैंने अपने हाथों | के लेखन में पाठक-जगत को नया चिन्तन तथा मौलिक विचार से जो गरीब जनता की सहायता की, वही मेरा असली गौरव है।। देकर जीवन-संग्राम में आगे बढ़ाना है। DD. Pased DODD000 अपने लाभ के लिये मनुष्य झूठ बोलता है। लेकिन जब उसका यह भ्रम मिट जाय कि झूठ बोलने से कुछ लाभ नहीं केवल लाभ का आभास है तो फिर कोई झूठ नहीं बोलेगा। लाभ तो सत्य बोलने में ही है। पुण्य और लक्ष्मी के जाने का पता उसके चले जाने के बाद ही लगता है। जल्दबाजी में जो कुछ किया, वह जीवन भर पछताने से भी वापस मिलने वाला नहीं है। -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि तष्तष्प्ताकपEPORDERDEDEODDED D90639. Dehatga personal use only. AND RODGE O RDoww.jainelibrary.org, Pdainedocslion freeimationapoEOP906D
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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