SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Swa tasop A 3000 capoor वाग् देवता का दिव्य रूप २८३ होता पाद-विहार नहीं तब, होता धर्म प्रचार नहीं। दान धर्म का प्रवेश द्वार है। दान की महत्ता पर चिन्तन करते होता धर्म-प्रचार नहीं तब, रहता एक विचार नहीं। हुए कवि ने लिखा है कि दुर्भिक्ष के समय उदारता से दान दो। उस रहता एक विचार नहीं तब, आस्थाएँ मर जाती हैं। समय पात्रापात्र का विचार न करो। क्योंकि जो व्यथित है, उसे देना । शक्ति बिखर जाती संघों की, प्रभावना गिर जाती है। ही तुम्हारा संलक्ष्य होना चाहिए। देखियेप्रभावक व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए कवि ने जो शब्द-चित्र पात्रापात्र विचार को यहाँ नहीं अवकाश। प्रस्तुत किया है वह बड़ा अद्भुत है देता है आदित्य भी सबको स्वीय प्रकाश। जो प्राणों का पात्र है, वह दानों का पात्र। उन्नत मस्तक दीर्घ भुजाएँ, जो पढ़ने में तेज है, वही श्रेष्ठतम छात्र॥ भव्य ललाट, हृदय बलवान। क्षात्र तेज के साथ रूप ने, -साधना की दृष्टि से साधक को निरन्तर साधना करनी बना रखा था अपना स्थान॥ चाहिए। उसे किसी प्रकार के चमत्कार की आकांक्षा नहीं करनी चौड़ी छाती, स्कन्ध सुदृढ़ थे, चाहिए और न चमत्कार का प्रदर्शन ही करना चाहिए। कवि चमत्कार-प्रदर्शन का निषेध करता हुआ कहता हैनेत्र विशाल सुरंग विशेष। रंग गेहुआँ होता ही है, चमत्कार है ब्रह्मचर्य तप, आकर्षण का केन्द्र हमेश॥ चमत्कार है व्रत-संयम। भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता-सदृश माना गया है।। चमत्कार दिखलाने वाला, 'अतिथि देवो भव' यहाँ का मूल स्वर है। जब अतिथि घर पर चमत्कार को करता कम॥ आए, तब गृहस्वामी का कर्तव्य है कि वह उसका स्वागत करे। चमत्कार दिख जाया करता, कवि ने इसी बात को कितने सुन्दर ढंग से कहा है, देखिए दिखलाने का करो न मन। रोटी और दाल से बढ़कर भोजन क्या हो सकता है? विद्युत चमत्कार दिखलाकर, आया हुआ अतिथि अपने घर, क्या भूखा सो सकता है? शीघ्र छुपाती अपना तन॥ आश्रय दो, दो भोजन-पानी, अपनापन दो, दो सत्कार। दुष्ट व्यक्ति, चाहे कैसा भी संयोग मिले, किन्तु अपनी वृत्ति को आये अतिथि न अर्थ माँगने, नहीं व्यर्थ का ढोओ भार। नहीं छोड़ता। वह शिष्ट के साथ भी दुष्ट प्रवृत्ति करने से नहीं सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की कवि ने संक्षेप में अति सुन्दर चूकता। कवि ने ऐसे ही दुष्ट मानव की प्रवृत्ति का चित्रण करते परिभाषा की है हुए लिखा हैद्रव्य त्याग से है बड़ा, देह त्याग का राग। नहीं छोड़ता दुष्ट दुष्टता, होता ही है जीव का, देहाश्रित अनुराग॥ उसका ऐसा बना स्वभाव। यह मैं, मैं यह, इस तरह लेता है मन मान। गिरिशिखरों पर, सड़कों में ज्यों, यही बड़ा मिथ्यात्व है, यही बड़ा अज्ञान ।। ___पाये जाते बड़े घुमाव। देह भिन्न, मैं भिन्न हूँ, जब लेता मन मान। मोर मधुर बोला करता है, सम्यग्दर्शन है यही, है यह सम्यग्ज्ञान॥ अहि को किन्तु निगल जाता। साधक को उद्बोधन देते हुए कवि ने कहा कि जिनशासन के भले नली में डालो, पर, क्या, लिए तुम्हें न्योछावर हो जाना चाहिए। जब तक तुम जिन- शासन श्वान-पुच्छ का बल जाता? के प्रति सर्वात्मना समर्पित नहीं होओगे तब तक जिन- शासन की तलो तेल में, भले महल में, सच्ची समुन्नति नहीं हो सकती। अतः वह कहता है गन्ध प्याज की कब जाती? जिन-शासन के लिए आप भी जीवन दान करो अपना। मार्जारी के मन में मूषक-गण पर अगर कभी देखा हो जो कुछ, वह तो सही करो सपना । दया नहीं आती॥ सुत दो, कन्याएँ दो, धन दो, और समय दो, सेवा दो । काव्य के भाषा-सौष्ठव तथा उक्ति-वैचित्र्य का एक सुन्दर श्री जिनशासन अपना शासन, समझ प्रेम का मेवा लो॥ उदाहरण देखिए STRAT O PATI 9 80300FP3POETD0000200 Sindhutaion mfemariomalRROdeat RFacedvate Rersonal use one t e e nijalneinstery.oad
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy