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________________ 000000000000 3000000000000000000000000 0 000000000 em69608667 con BPOP.900-000- | २७६ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । जयपुर की ओर जाते समय गुरुदेवश्री ताराचंद्र जी म. के पैर एक बार आप और आपके गुरुदेव दो ही संत बड़ौदा से सूरत में अत्यधिक दर्द था। बड़ी मुश्किल से चलते हुए और आप सभी | पधार रहे थे। साथ में पं. रामानन्द जी शास्त्री थे। रास्ते में एक एक गाँव में पहुँचे। वहाँ आप सबको मुँह बाँधे एक डाकू समझकर । मुस्लिम बहुल गांव में रुके। स्थानीय मुस्लिम भाई ने एक भूत का ठहरने नहीं दिया। लाठियाँ लेकर कुछ लोग आए, आपको उसी बंगला ठहरने के लिए बता दिया। रात को उक्त प्रेत का भयंकर समय आगे खदेड़ दिया। राहगीरों से पूछते-पूछते सायंकाल १४ प्रकोप हुआ। पंडितजी की तो डर के मारे घिग्घी बंध गई। परन्तु मील दूर सड़क के किनारे स्थित एक मंदिर में पधारे। वहाँ की आपश्री के जाप के प्रभाव से उपद्रव शान्त हो गया। पुजारिन ने भक्तिभाव से आपको ठहरने का स्थान तथा । ऐसे एक ही नहीं अनेक प्रसंग आए, जब आपके अध्यात्मयोग आहार-पानी दिया। आज प्रातःकाल तर्जना मिली और सायंकाल यकाल की पूरी कसौटी हुई। परन्तु आप उसमें खरे उतरे। मिली अर्चना, तब भी समभाव में स्थित होकर रहे। अध्यात्मयोगी की वही मस्ती आप में रही कि लाभ और अलाभ में, सुख और पूर्वोक्त अध्यात्मयात्रा का उत्तरोत्तर परिवर्द्धन दुःख में, सम्मान और अपमान में, अनुकूलता और प्रतिकूलता में इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि आपश्री की सम रहे। मन में जरा भी क्षोभ, व्याकुलता या उद्विग्नता नहीं लाए। आध्यात्मिकयात्रा आगे से आगे दिनोदिन बढ़ती जा रही थी। __ कई नगर विरोध और कटु आलोचना की आँधी इतनी तीव्र अध्यात्मयोगी अपनी साधना के साथ-साथ समाज की साधना रही कि दूसरा होता तो टिक नहीं पाता, परन्तु अध्यात्मयोगी और शुद्धि की ओर भी अधिक ध्यान देता है। समाज शुद्ध न हो उपाध्यायश्री जी म. विरोध के कांफड़ों के सामने भी अविचलित तो उसमें रहने वाला व्यक्ति भी अशुद्ध हो सकता है। यही कारण होकर टिक रहे। है-साधुवर्ग की विचार-आचार धारा को व्यवस्थित करने, उसे अध्यात्मयोगी की उपलब्धियों के चमत्कार एकरूपता देने तथा शास्त्रों को व्यवस्थित ढंग से लिपिबद्ध करने के उद्देश्य से पाटलिपुत्र से लेकर अजमेर, सादड़ी एवं सोजत तक में इतनी शान्ति और समाधि का मूल कारण है-आपकी जप, कई साधु-साध्वी सम्मेलन हो चुके थे. सन् १९५२ के सादड़ी में हुए ध्यान, मौन तथा तप की साधना। वास्तव में, जाप, आधि, व्याधि साधु सम्मेलन में आपने अपने ओजस्वी प्रवचनों से सम्मेलन की और समाधि को नष्ट कर समाधि प्रदान करने वाला, बोधिलाभ में भूमिका तैयार की। उसमें आपने अपनी विलक्षण बौद्धिक प्रतिभा स्थिर रहने वाला तथा प्रत्येक परिस्थिति में सम और शान्त रहने और सूझ-बूझ का परिचय दिया। अथक परिश्रम से निर्मित वाला होता है। श्रमणसंघ को सुदृढ़ बनाने तथा अखण्ड बनाए रखने के लिए जप और ध्यान की साधना आप प्रतिदिन त्रिकाल करते थे। आपने जी-जान से प्रयत्न किया। आप सम्प्रदायवाद एवं धर्म झनून इसका अलौकिक प्रभाव जिन्होंने देखा है, वे जानते हैं कि उसके । आदि को स्वयं पसन्द नहीं करते। आपकी विराट् योग्यता और कारण आपश्री के मुख से मंगलपाठ सुनकर लोग स्वस्थ और प्रसन्न विद्वता देखकर श्रमणसंघ के महामहिम आचार्यसम्राट श्री होकर विदा होते थे। आनंदऋषि जी म. ने उपाध्याय पद से अलंकृत किया। आपने सन् १९६९ की नासिक की घटना। एक नौ वर्ष की बालिका उपाध्याय पद के अनुरूप अनेक साधु-साध्वियों को पढ़ाया, स्वयं भी की नेत्र ज्योति चली गई। अध्यात्मयोगी गुरुदेव उसके घर पर स्व-सिद्धांत-परिसिद्धांत का गहन अध्ययन किया। “धर्म का पधारे, मंगलपाठ सुनाया। सहसा उस बच्ची की आँखों में पुनः । कल्पवृक्ष : जीवन के आंगन में", "ब्रह्मचर्य विज्ञान", "जिन्दगी ज्योति आ गई। नेत्र-विशेषज्ञ भी इसे देखकर आश्चर्यचकित हो । एवं मुस्कान सफल जीवन", "दानः एक समीक्षात्मक अध्ययन,” उठे। "श्रावक धर्म दर्शन," आपकी सफल कृतियाँ हैं। जैन कथाएँ भाग बैंगलोर से ३५ मील दूर रामनगर गांव में उपाध्यायश्री ठहरे । १ से १११ तक आपके जीवन की समाज को अनूठी देन है। हुए थे कि बैंगलोर से एक कार में एक २०-२५ वर्ष की उम्र की समाज को अद्भुत नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रेरणा देने युवती को लेकर कुछ व्यक्ति आए, बेहोशी की हालत में थी, सभी वाला साहित्य है। सम्यक्चारित्र का भी आपने स्वयं पालन किया उपचार नाकामयाब हो गए थे। अध्यात्मयोगी उपाध्यायश्री मँह से और समाज को भी आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म.. उपप्रवर्तक श्री महामृत्युंजय नमोकार मंत्र का पाठ सनते ही वह होश में आ गई। राजेन्द्र मुनि जी म., श्री दिनेशमुनि जी म.. श्री गणेशमनि जी म. सन् १९७३ के अजमेर वर्षावास के दौरान पारसमल जी "शास्त्री" आदि कई साधुरल शिष्य दिए, कई श्रमणोपासक बनाए। ढाबरिया की धर्मपत्नी ने मासखमण तप किया। परन्तु पारणे की इस प्रकार आपकी अध्यात्मयात्रा वैराग्य से प्रारंभ होकर रात को उसकी तबियत एक-एक बिगड़ी। उसकी नाजुक एवं गंभीर । ज्ञान-दर्शन चारित्र की गरिमा को छूती हुई अन्तिम श्वास तक परिस्थिति के कारण सभी चिन्तित थे। सभी उपचार भी निष्फल हो समाधिमरण रूप संथारा को पार करती हुई देवलोक प्रयाण कर गए। ऐसे समय में उपाध्यायश्री उसे दर्शन देने पधारे। कुछ पाठ गई। अध्यात्मयोगी उपाध्यायश्री पुष्कर मुनि जी. की यह सुनाया, जिससे वह स्वस्थ होकर उठ बैठी, उसने आहारदान दिया। अध्यात्मयात्रा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं वीर्य को आचार में यह था अध्यात्मयोग का चमत्कार। कुशलतापूर्वक चरितार्थ करती हुई सफल हुई। 905080 Poe 00066506.0000000000000..0..0.0.03.0300%A8000 POUDHEditatied internationasopdo20909000.00FERWates PetsobattloohlyaD 10.००.००%DArear000000000000000000०.० 2090806.56565 wayi.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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