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________________ GAVANOCONVOC 1२६४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । य 20.6981 महोत्सव और महोत्सव x नील-निर्मल झीलों की नगरी, राजस्थान का काश्मीर, विश्व में इतनी अधिक अस्वस्थता एवं अशक्ति के उपरान्त भी वे re वीरत्व के लिए विख्यात महान् मेवाड़ अंचल की राजनगरी उदयपुर स्थितप्रज्ञ की भाँति पूर्ण आत्मभाव में लीन थे। भव्य, प्रशान्त, दिव्य उस दिन एक महोत्सव में मग्न थी। मुखमुद्रा पर कहीं एक सलवट तक तो दिखाई दे नहीं रही थी। वही __मानों अमरों की अलकापुरी ही इस भूतल पर उतर आई हो। आत्मतेज, वही सौम्यता, वही निर्मल पावनता और अखण्ड शान्ति की भव्य भावना! अपने समस्त सौंदर्य-शृंगार, उल्लास और आनन्द का अमृतकलश उँडेलती। मानव-मेदिनी सातों समुद्रों की भाँति उफन रही थी। उसके चैत्र महीना था। शुक्ला नवमी का दिन। प्रातःकाल का समय, अपार हर्ष और उमंग का ऊँचा उफान आकाश छू रहा था। सूर्य उदय होने ही वाला था, प्रतिक्रमण पूर्ण हो चुका था, केवल प्रत्याख्यान करने थे श्रद्धेय गुरुदेवश्री ने कहा-'देवेन्द्र अब मेरा वह एक महोत्सव का पावन दिवस था। अंतिम समय आ गया है मैं अब कुछ ही समय का मेहमान हूँ। अब चैत्र सुदी पंचमी, रविवार, दिनांक अट्ठाईस मार्च, सन् उन्नीस मुझे चौविहार संथारा करा दो। यों पूर्व, जब कभी भी स्वास्थ्य की सौ तिरानवे। (२८.३.९३) प्रतिकूलता के अवसर पर मेरे द्वारा जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर - श्रमण-संघ के आचार्य-पद का चादर-महोत्सव उस दिन उस गुरुदेव फरमाते रहे कि मेरा अभी अंतिम समय नहीं आया है, जब भाग्यशाली नगरी में आयोजित था। उस महान् महत्वपूर्ण अवसर मेरा अंतिम समय आएगा तब मैं स्वतः तुझे कह दूंगा।' आज पर समस्त नगरी जैनत्व की निर्मल प्रेम-भावना में आकंठ डूबी उस गुरुदेवश्री का स्वास्थ्य भी उतना अस्वस्थ नहीं था तथापि मैंने गुरुदेवश्री के शारीरिक लक्षणों को देखा और मुझे लगा कि भव्य एवं सुविशाल मंडप की ओर अपलक नयनों से निहार रही गुरुदेवश्री का फरमाना यथार्थ है और मैंने उसी समय गुरुदेवश्री थी, बढ़ रही थी, उमड़ रही थी-जहाँ श्रमण-संघ के तृतीय आचार्य की भव्य भावना को समलक्ष्य में रखकर सभी संत जो वहाँ पर पद का चादर-समारोह होने वाला था। चद्दर समारोह में पधारे हुए थे। प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म. सारी नगरी ही क्यों, समस्त भारतवर्ष से उल्लास में डूबे चले प्रवर्तक, श्री रूपमुनि जी म., प्रवर्तक श्री रमेशमुनि जी म., आए दो सौ से अधिक सन्त-सतीवृन्द और दो लाख से अधिक } प्रवर्तकश्री महेन्द्रमुनि जी म. 'कमल', महामंत्री श्री सौभाग्यमुनि जी धर्मप्रेमी बन्धु उस विशाल, आकाश की भाँति अघोर मंडप में भी म., तपस्वी प्रवर मोहनमुनि जी म., पं. हीरामुनि जी श्री गणेशमुनि समा नहीं पा रहे थे। जी म., पं. श्री रवीन्द्र मुनिजी म. आदि सभी को बुला लिया और कैसा अद्भुत, कितना अवर्णनीय और भव्य था वह दृश्य और । । उन सभी संतों के सामने गुरुदेवश्री की भव्य भावना को बतलाते हुए मैंने कहा कि "गुरुदेवश्री ने स्वयं संथारा मांगा है और वह भी वह वातावरण! ऐसे आनन्दमय, भव्य एवं अमृतवर्षी परिदृश्य को चौविहार। गुरुदेवश्री ने अपने जीवन की आलोचना पहले ही स्वस्थ देखने के लिए देवगण भी उस अवसर पर इस भूतल पर उतर अवस्था में कर ली थी और अस्वस्थता के कारण औद्देशिक आए हों तो कोई आश्चर्य नहीं। नैमेत्तिक आहार औषध आदि का जो उपयोग हुआ, उसका परम उल्लास, सद्भाव, स्नेह और आनन्द के क्षणों में निर्मल प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण कर लिया था। गुरुदेवश्री जागरूक भावनाओं के साथ वह चादर-समारोह सानन्द सम्पन्न हुआ। आत्मा हैं आप लोग जो अनुभवी हैं, आपने अनेकों बार संथारे करवाए हैं, अतः आप भी देख लेवें। किन्तु, हा हन्त! उसी अवसर पर पूज्य उपाध्याय श्री को करवाए ह, अतः आप भा दख लव। यकायक नाक से खून गया। थोड़ा भी नहीं, लगभग दो किलो। वे शारीरिक लक्षणों को देखकर अधिकारी मुनिप्रवरों ने और कुछ दिन से अस्वस्थ तो चल ही रहे थे, किन्तु नाक से इतना तपस्वीमुनि आदि ने कहा कि आप संथारा फरमा देवें। संतों की अधिक खून यकायक चले जाने से वे अत्यधिक अशक्त हो गए। साक्षी में उसी समय श्रावक वर्ग भी उपस्थित हो गया था, मैंने उन खड़े होते समय यद्यपि उन्होंने एक सन्त का हाथ थाम रखा था, सभी के सान्निध्य में गुरुदेवश्री को चौविहार संथारा करवा दिया। फिर भी अधिक अशक्ति के कारण वे संभल नहीं सके और उनके संथारे के समय गुरुदेवश्री पूर्ण जागरूक स्थिति में थे, उसके 5. पैर की अंगुलियों में फ्रैक्चर हो गया। पश्चात् उन्हें बोलने में कुछ कठिनाई का अनुभव होने लगा किन्तु उनके मुखारबिन्द पर अपूर्व तेज झलक रहा था, वे प्रशान्त किन्तु उन महान् आत्मा के विषय में यह क्षुद्र लेखनी क्या मुद्रा में जिस स्थिति में सोए हुए थे उसी स्थिति में बिना हिले-डुले DD लिखे? कैसे लिखे? कितना लिखे? सोते रहे। 90.00 Jain Education international or Jab Tarerivate a personalDse pelyaDi O DDDOO Diwww jainelibrary.org ०००००००० DDDR32002pRDD 1000 2000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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