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________________ 1 २६२ 984OKES उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । अन्त में हमारी ही नहीं अपितु संघ के सभी सदस्यों की भावना श्रमण संघ की सुदृढ़ता के लिए ही सन् १९७७ का वर्षावास है कि श्रमण संघ अक्षुण्ण व अखण्ड बना रहे। आचार और विचार । महामहिम आचार्यप्रवर आनन्दऋषि जी महाराज की सेवा में की दृष्टि से दिन-प्रतिदिन प्रगति के पथ पर दृढ़ता से बढ़ता रहे। सिकन्दराबाद में किया। संघ के समुत्कर्ष के सम्बन्ध में आचार्यप्रवर और जन-जन के हृदय से यही नारा निकले कि “अखण्ड रहे यह । से गम्भीर चिन्तन-मनन किया गया और आचार्यश्री की संघ हमारा।" जन्म-जयन्ती के सुनहरे अवसर पर मधुकर मुनिजी महाराज को प्रस्तुत वक्तव्य से समाज में अभिनव जागृति का संचार हुआ युवाचार्य पद प्रदान किया गया। और उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज को लगा कि मेरी इस प्रकार जहाँ-जहाँ भी आपश्री के वर्षावास हुए, वहाँ पर अवैधानिक कार्यवाही को श्रमणसंघ के मूर्धन्य मनीषीगण अनादर धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते रहे। आपश्री के की दृष्टि से देख रहे हैं, अतः उन्होंने श्रमणसंघ से व उपाचार्य पद । वर्षावासों में उत्कृष्ट तप की आराधना होती रही है और संघ में से त्यागपत्र की घोषणा कर दी। आपश्री ने त्यागपत्र की सूचना स्नेह-सदभावना की अभिवृद्धि भी। मिलते ही विजयनगर से उपाचार्य श्री की सेवा में-एक शिष्ट मंडल जहाँ भी आपश्री पधारे वहाँ पर संघ में अभिनव जागृति का प्रेषित करवाया। उस शिष्टमंडल ने उपाचार्य श्री से यह निवेदन किया कि आप त्यागपत्र न दें। आपश्री से जो अवैधानिक कार्यवाही संचार होता रहा है। स्थान-स्थान पर जो सामाजिक कलह थे, जिसे हो चुकी है, उसका परिष्कार कर दिया जाय। पर उपाचार्य श्री राजस्थानी भाषा में 'धड़ा' कहते हैं, ये आपश्री के उपदेशों तथा भक्तों को प्रसन्न रखना चाहते थे। अतः ऐसा न कर सके। आपश्री सत्प्रेरणा से मिटे हैं। रायपुर-मेवाड़ में कई वर्षों के धड़े थे, वे ने अपनी ओर से यही. प्रयास किया कि श्रमणसंघ अखंड बना रहे, आपश्री के एक ही उपदेश से मिट गए। एतदर्थ आपश्री उदयपुर भी पधारे और हर दृष्टि से उपाचार्य श्री अनुशासनप्रिय को समझाने का प्रयास किया, किन्तु किन्हीं कारणों से सफलता न का महामहिम आचार्यसम्राट् आनन्दऋषि जी म. का वर्षावास पूना मिल सकी। में था। आचार्यसम्राट् ने श्रमण संघ के सभी मूर्धन्य मनीषियों को सन् १९६४ में अजमेर में शिखर सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन प्रेरणा प्रदान की कि पूना में सन्त सम्मेलन का मंगलमय आयोजन की सफलता के लिए आपश्री ने अथक प्रयास किया और हो यह मेरी हार्दिक इच्छा है। आचार्यसम्राट् की इच्छा की पूर्ति करने गुलाबपुरा से लेकर अजमेर तक गुरुदेव श्री ने आचार्य आनन्दऋषि के लिए कौन इन्कार हो सकता था। सभी ने स्वीकृति प्रदान की। जी महाराज के साथ रहकर अनेक गम्भीर समस्याओं को सुलझाने श्रद्धेय गुरुदेवश्री ने अपनी वृद्धावस्था के कारण वहाँ पर पहुँचने में का प्रयास किया और परमश्रद्धेय आचार्य सम्राट् आत्माराम जी म. अपनी असमर्थता पत्र द्वारा निवेदन की। आचार्यश्री ने आदेश दिया के स्वर्गस्थ होने पर उनके पट्ट पर आचार्य सम्राट् आनन्दऋषि जी । कि हर हालत में पहुँचना ही है यह मेरा आदेश है। अनुशासनप्रिय म. को आसीन किया। तथा मंत्री व्यवस्था के स्थान पर प्रवर्तक गुरुदेवश्री आचार्यसम्राट् की आज्ञा की अवहेलना किस प्रकार कर और उपाध्याय व्यवस्था को मान्यता प्रदान की। सकते थे। समदड़ी (बाड़मेर) से उग्र विहार कर पूना पधारे और सन् १९६७ में बालकेश्वर, बम्बई में चातुर्मास था। बम्बई में सम्मेलन में सम्मिलित हुए। यह थी आपकी अनुशासनप्रियता। राजस्थान प्रान्तीय व्यक्तियों का कोई संगठन नहीं था। आपश्री की । प्रस्तुत सम्मेलन में आचार्यसम्राट ने और श्रमणसंघ के सभी प्रेरणा से राजस्थान प्रान्तीय संघ की स्थापना हुई। तथा अनेक । पदाधिकारी मुनिराजों ने संघ सेवा का दायित्व मुझे सौंपा। साहित्यकार इस वर्षावास में आपश्री के परिचय में आए। नियमित दिनचर्या सन् १९६९ में पूना में वर्षावास के बाद आपश्री नासिक । पधारे। उस समय मालवकेसरी सौभाग्यमल जी महाराज आपश्री के आपश्री के जीवन का अटल सिद्धान्त था-कम बोलना और साथ थे। नासिक में महाराष्ट्र के श्रावकों का एक विराट् आयोजन । कार्य अधिक करना। आपश्री का स्पष्ट मन्तव्य था कि मानवकिया गया। श्रमणसंघ की उन्नति किस प्रकार हो, इस पर गम्भीर जीवन का भव्य प्रासाद आचार-विचार के विशाल स्तम्भों पर रूप से विशद् चर्चाएँ की गईं। निर्मित होता है। आपश्री को स्वाध्याय, ध्यान, जप, चिन्तन, मनन, अध्यापन, व्याख्यान, आगन्तुकों से वार्तालाप, उनकी नाना शंकाओं सन् १९७० में आपश्री का चातुर्मास कान्दावाड़ी, बम्बई में का निरसन करना प्रिय था। था। उस समय राजस्थान प्रान्तीय सन्त सम्मेलन का आयोजन सांडेराव-मारवाड़ में किया गया। वहाँ संघ उत्कर्ष की भावना से । इसके साथ ही योगासन करना आपश्री का एक नियमित आपश्री लम्बे-लम्बे विहार करके दो महीने में सम्मेलन में पधारे। कार्यक्रम था। हलासन, सर्वांगासन, पद्मासन, बद्ध पद्मासन और आपश्री के पधारने से वहाँ संगठन का सुन्दर वातावरण बना। शीर्षासन-ये आपके प्रिय आसन थे। Sian Educationaliternational ao Sapayeeseersonal use Daya 69060.00000DID. www.jainelibrary.orgi esed
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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