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________________ 0-3000-htosh 002 ao उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । %80 संगठन के सजग प्रहरी VAR 2009 SECOEDDSTD. OARD:600 OR3920000000000066 25000200402 65040 सन् १९४८ का वर्षावास घाटकोपर, बम्बई में सम्पन्न कर द्वितीय वर्षावास में व्याख्यान वाचस्पति श्रमण संघ के आप अन्य स्थानों पर विचरण करते रहे। आपके अन्तर्मानस में प्रधानमंत्री श्री मदनलाल जी महाराज आपके साथ थे। इस वर्षावास जैन समाज की एकता के लिए चिन्तन चल रहा था। घाटकोपर में के उपसंहार में कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को आपश्री के सद्गुरुदेव आपकी प्रबल प्रेरणा से उपाध्याय प्यारचन्द जी महाराज, आत्मार्थी महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी महाराज का संथारे से स्वर्गवास हो श्री मोहनऋषि जी महाराज, शतावधानी पूनमचन्द जी महाराज गया। महास्थविर श्री ताराचन्द्र जी म. श्रमण संघ में सबसे बड़े और परम विदुषी उज्ज्वलकुमारी जी आदि सन्त-सतीगण वहाँ पर दीक्षा स्थविर थे। गुरु का वियोग किस शिष्य के हृदय में ठेस नहीं एकत्रित हुए। सन्त-सम्मेलन की योजना बनाई गई और आपश्री ने पहुंचाता है। एक पंचसूत्री योजना प्रस्तुत की अनुशासन १. एक गाँव में एक चातुर्मास हो। सन् १९५७ में आपका चातुर्मास उदयपुर में था। उस समय २. एक गाँव में दो व्याख्यान न हों। आपश्री के कुशल नेतृत्व से प्रभावित होकर उपाचार्यश्री गणेशीलाल ३. एक-दूसरे की आलोचना न की जाए। जी महाराज ने मुनि श्री हस्तीमल जी तथा तपस्वी राजमल जी को ४. एक सम्प्रदाय के सन्त दूसरे सम्प्रदाय के सन्तों से मिलें। अनुशासनबद्धता सिखाने के लिए आपके पास उदयपुर वर्षावास हेतु प्रेषित किया। ५. यदि मकान की सुविधा हो तो एक साथ ठहरा जाए। परिणाम बहुत उत्साहजनक आया। आपश्री ने उन्हें इतने सन् १९५१ में आपका चातुर्मास सादड़ी था। उस समय स्नेह-सौजन्यपूर्वक रखा कि देखकर सभी व्यक्ति चकित रह गए। आपश्री की प्रेरणा से सादड़ी में विराट् सन्त-सम्मेलन हुआ और श्री । वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ की स्थापना हुई। संघ की इस अखंड रहे यह संघ हमारा संस्थापना में आपश्री की विलक्षण प्रतिभा, सूझ-बूझ, संगठन-शक्ति श्रमणसंघ की स्थिति विषम हो रही थी। यह बात सन् १९६० तथा सौम्य-सद्व्यवहार नींव की ईंट के रूप में कार्य करते रहे। की है। उस समय आपश्री का वर्षावास ब्यावर में था। पारस्परिक सन् १९५२ में सिवाना वर्षावास में भी संगठन को अधिक से । विचार भेद ने संघ की स्थिति को, जैसा कि हमने कहा, चिन्तनीय अधिक सुदृढ़ बनाने के लिए आपका चिन्तन चलता रहा।। बना दिया था। उस स्थिति को सुलझाने-सम्हालने के लिए आपश्री परिणामस्वरूप ही सोजत में मंत्रिमंडल की बैठक हुई। उसमें वर्षावास के पश्चात् विजयनगर पधारे। वहाँ मंत्री मुनिश्री पन्नालाल सचित्ताचित्त के प्रश्न को लेकर गम्भीर चर्चाएँ हुई और एक । जी महाराज वृद्धावस्था के कारण विराजे थे और आपके सन्देश आचारसंहिता का निर्माण हुआ। जब भी कभी सम्मेलनों में को सम्मान देकर उपाध्याय हस्तीमल जी महाराज भी वहाँ पधार विचार-चर्चा में मतभेद होने के कारण दरार पड़ने की स्थिति उत्पन्न गए थे। आप तीनों ने मिलकर श्रमण संघ के विषय में गम्भीर हुई, उस समय आपश्री नूतन एवं पुरातन विचारों वाले सन्तों को विचार-विनिमय किया तथा 'अखंड रहे यह संघ हमारा' विषय पर समझा कर समस्या का समाधान करते रहे। आपश्री का यह स्पष्ट ऐतिहासिक वक्तव्य भी दिया, जिसका सारांश प्रस्तुत हैमत रहा कि केवल संगठन के गीत गाने से काम नहीं चलेगा। _ 'युगों से समाज के हितैषियों के अन्तर्मानस में यह आकांक्षा उसके लिए अपने स्वार्थों का बलिदान भी देना होगा। केवल मंच थी कि हमारे श्रद्धेय मुनिगण ज्ञान और चारित्र में, आचार और पर लम्बा-चौड़ा व्याख्यान देना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु सच्चे हृदय । विचार में उन्नत होने पर भी विभिन्न सम्प्रदायों में विभक्त हैं। जिसके से कार्य करने की आवश्यकता है। कारण जिनशासन की जो उन्नति होनी चाहिए वह नहीं हो पा रही संगठन के ऐसे सजग प्रहरी बिरले ही होंगे। है। विभिन्न धाराओं में प्रवाहित होने वाली सरिता अपने लक्ष्य तक महास्थविर जी का स्वर्गवास नहीं पहुँच सकती, लक्ष्य स्थल पर पहुँचने के लिए अनेकता नहीं, ___ सन् १९५५ और १९५६ में आपका वर्षावास जयपुर में था। एकता की आवश्यकता है। यदि हमारे ये सन्त भगवान एक बन प्रथम वर्षावास में कविवर्य अमरचन्द जी महाराज, स्वामी श्री } जायें, सुसंगठित व व्यवस्थित बन जायें तो जिनशासन की महती हजारीमल जी महाराज, स्वामी फतेहचन्द जी महाराज, पं. मधुकर । प्रभावना हो सकती है। जैन धर्म की विजय-वैजयन्ती हिमालय से मुनिजी महाराज और पं. कन्हैयालाल जी 'कमल' आदि चौदह सन्त । कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक ही नहीं, अपितु विश्व आपश्री के साथ थे। के एक छोर से दूसरे छोर तक फहरा सकती है।' CODDA 200016090016 Osafar fangiodeso.30661 06600.0000000000006 00.0000000300960 500080plivanesPersonal use thigo34 96600000000000694 303060. 5Wior.jainelibrary.org.
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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